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Monday, 19 November 2018

चक्रबर्ती सम्राट मिहिर भोज

गुर्जर चक्रबर्ती सम्राट मिहिर भोज की जीवनी 
लेखक-
श्री शोभाराम भाटी
प्रधान संपादक- वर्तमान सत्ता,
इंजी. राम प्रताप सिंह लम्बरदार

मिहिरभोज' गुर्जर प्रतिहार वंश का सर्वाधिक प्रतापी एवं

महान् शासक था। मूल नाम 'मिहिर' था और 'भोज'  उपनाम था। उसका राज्य उत्तर में हिमालय, दक्षिण में नर्मदा, पूर्व में बंगाल और पश्चिम में सतलुज तक विस्तृत था,भोज प्रथम विशेष रूप से भगवान विष्णु के वराह अवतार का उपासक था,इनके साम्राज्य के विवरण भी बड़ा ही सुहाना और  गर्व कराने लायक था

 "इत चम्बल उत बेतवा,मालव सीम सुजान 
दक्छिण दिशि हे नर्मदा ,यह गुर्जर की पहचान"  

"राष्ट्र चाहे जैसा खतरनाक और अंधकार पूर्ण हो ,उसका अंत
दूर और दृस्टि से बाहर क्यों न हो आप  में बल हो और चाहे आप थके हुए हों, आप साहसपूर्वक चले जाइए , परमात्मा पर भरोसा  रखिये और न्याय से काम करते रहिये आपको सफलता मिलेगी, आप लक्च्या या मंजिल पर पहुच ही जायेंगे"" किसी महान व्यक्ति के विचार जो गुर्जर सम्राट के परिचय के साथ लगते हैं  क्यों कि एक महान राज्य का सृजन करने में हिम्मत , शांति,
आत्मज्ञान, धीरज, विस्वाश की जरूरत पड़ती है नही तो इतिहाश बनाने की जगह किरदार इतिहाश में दबा दिए जाते हैं लिकिन मिहिर भोज के पास सब कुछ था परिणाम स्वरूप आज वो ख्याति वान है!
मिहिरभोज गुर्जर राजवंश के सबसे महान राजा माने जाते है। इन्होने लगभग 55 साल तक राज्य किया था। इनका साम्राज्य अत्यन्त विशाल था और इसके अन्तर्गत वे थेत्र आते थे जो आधुनिक भारत के राज्यस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियांणा, उडीशा, गुजरात, हिमाचल,मुलतान, पश्चिम बंगाल और कश्मीर से कर्नाटक आदि राज्यों हैं।

मिहिर भोज विष्णु भगवान के भक्त थे तथा कुछ सिक्कों मे इन्हे 'आदिवराह' भी माना गया है। मेहरोली नामक जगह इनके नाम पर रखी गयी थी।  राष्टरीय राजमार्ग 24 का कुछ भाग गुर्जर सम्राट मिहिरभोज मार्ग नाम से जाना जाता है बिहार का भोजपुर इनके नाम  से जाना जाता है

सम्राट मिहिर भोज ने 836 ईस्वीं से 889 ईस्वीं 54 तक साल तक राज किया। स्कंध पुराण के प्रभास खंड में सम्राट मिहिर भोज के जीवन के बारे में विवरण मिलता है। गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का जन्म सम्राट रामभद्र की महारानी अप्पा देवी के द्वारा सूर्यदेव की उपासना के प्रतिफल के रूप में हुआ माना जाता है मिहिर भोज की  पत्नी का नाम चंद्रभट्टारिका देवी था

मिहिर भोज के सिक्के- गुर्जर प्रतिहार राजाओं के द्वारा चलाये
गए सिक्कों को उस काल में ग्रीक भासा के द्राम के नाम से जाना जाता था अभिलेखों में मिले जानकारी के अनूसार जिसमें कामा ,आहार, सियाडोनि के अभिलेखों के अनुसार गुर्जर प्रतिहार काल में मिहिर भोज के सिक्कों का नाम श्रीमदआदिवराह द्राम के जान से जाना जाता था मिहिर भोज के समय सिक्कों की माप के अनुसार ग्रीक- सासानी सिक्के उस समय ६६ ग्रेन तथा गुर्जर प्रतिहार कालीन सिक्के माप में ६५ ग्रेन के थे जो काफी उत्तम दर्जे के थे [1]
गुर्जर सम्राट मिहिर भोज की विशाल सेना-विश्व की सुगठितऔर विशालतम सेना भोज की थी-इसमें 8,00,000 से  ज्यादा पैदल करीब 90,000 घुडसवार,, हजारों हाथी और हजारों रथ थे 36 लाख की कुल सेना  जिसको चारो दिशाओं में चौकियों पे तैनात कर रखा था एक टुकड़ी पंजाब में तैनात थी जो कश्मीर और अफगानिस्थान की तरफ से होने बाले हमलों के लिए तैयार रहती थी ।दुसरीं टुकड़ी की संभवतः मांडू का गढ़ रहा था जिसको सेना की सरहद मान सकते हैं तीसरी सेना की टुकड़ी बिहार के भोजपुर तथा कन्नौज पर तैनात थी इसके अतिरिक्त अरब से होने बाले हमलों के लिए ऊंट तथा घोड़ों का उपयोग सम्राट की अगुवाई में किया जाता था सेना पर गुर्जर सम्राट राज्य की आय का 50% व्यय करते थे जिसकी बजह से राज्य की विशालता कायम थी 915 ईसवी में भारत आये बगदाद के इतिहासकार ने लिखा है क "गुर्जर राजा के पास 36 लाख सेना थी जो वर्तमान दुनिया की सबसे बड़ी सेना थी"गुर्जर सम्राट की सेना में किसान तथा अन्य सभी भाग लेते थे (2) सागरताल के अभिलेख से मिहिर भोज ने "वाहिनिनापतीन" सब्द का उपुयोग किया जिससे साफ प्रदर्षित होता है कि सेना में एक से अधिक सेनापति ,सेनानायक  होते थे इसने अभिलेखों में "तलक "बलाधिकृत का उल्लेख मिलता है (3)मिहिर भोज की सेना  चार भागों में विभाजित थी पैदल ,अस्व  सेना ,गज सेना ,रथ सेना  तथा अन्य सामन्तों की सेना थी  बलाधिकृत तथा बलाध्यछ  अर्थात सेनापति तथा सेना प्रमुख मुख्य सेना अधिकारी होते थे और सेना की कमान राजा के हात में होती थी गुप्तचर विवस्ता  का अधिकारी दुतपेशनिक होता था ।।

मिहिर भोज की उपाधियां- बेगुमरा ताम्रपत्र से "मिहिर" ग्वालियर प्रसस्ति से "मिहिर"(4) सिक्कों पर उपाधि "आदि बराह "  सीमडोनि गाँव ललितपुर में मिले अभिलेख के अनुसार  नाम "भोज देव"नाम मिलता है (5) , आर्यव्रत सम्राट , विष्णु भक्त  तथा परमेश्वर तथा मिहिर भोज महान का दौलतपुर अभिलेख पूर्ण नाम के साथ है (6) ,परम भट्टारक, महाराजाधिराज ,प्रतिहार आदि उपाधियां हैं ।

सामान्य सव्दों में "मिहिर" तेजवान सूर्य के लिए उपयोग में लाया जाता है अर्थात जो जमीन से आद्रता सोख लेता है ठीक वैसे ही मिहिर अर्थात गुर्जर दुश्मनों की रगों  का खून सामने आने से सोख जाता था ।

मिहिर भोज के सामन्त-
1-गोरखपुर के कलचुरी
2-चाटसु के गुहिल
3-शाकंभरी के चाहमान
4-मारवाड़ के प्रतिहार
5-प्रताप गढ़ के चौहमान
6-सौराष्ट्र के चालुक्य
7-धार के परमार
8-त्रिपुरी के कलचुरी
9-जेजकभुक्ति के चंदेल गुर्जर
10-मंडोर के गुर्जर
11-चंदेरी के गुर्जर प्रतिहार
12-दिल्ली के तंवर गुर्जर
13- राजोरगड के गुर्जर
14-पंजाब के अलखान गुर्जर
15-हाडला के चेदि
16-काठियावाड का बलवर्मन
17-पश्चिमोत्तर प्रदेश के शाही वंश
18-भड़ानक के भड़ाना
19-शिवपुरी के प्रतिहार
20-भड़ोच के चाप/ छावडी/चपराना
इनके अतिरिक्त भी इनके नीचे तथा अन्य छोटे बड़े सामन्त थे सभी सामंतों  का प्रमुख सामंताधिपति होता था जिसका वर्णन गुर्जर राजाओं के अभिलेखों में है ।

मिहिर भोज के अभियान -गुर्जर सम्राट मिहिर भोज को सम्पूर्ण आर्यव्रत का चक्रबर्ती साम्राट कहने के लिए उनका साम्राज्य ही विशालता के शिखर पर था मिहिर भोज के सबसे प्रसिद्ध अभियान सिंध और मुल्तान के अरब के विरुद्ध किये गए थे जिनमें उनको सफलता मिली थी इसके बाद त्रिकोणीय युद्ध मे शामिल होना मिहिर भोज ने त्रिकोणी युद्ध मे शामिल होकर पाल वंश तथा राष्ट्रकूट वंश के अमोघवर्ष को कन्नौज से खदेड़ दिया था इसमे बाद पंजाब के पश्चिम प्रदेश जिसपे कश्मीर के शंकर वर्मन वंश का अधिकार था जिसको समाप्त करके मिहिर भोज ने सम्पूर्ण पंजाब (पेहोवा ) पर कब्जा कर लिया था इसके अतिरिक्त गुजरात , उज्जैन , राजपूताने , कालिंजर मंडल को जीत कर एक समृद्ध राज्य की स्थापना की थी ।

गुजरात की तरफ अभियान- सम्राट मिहिर भोज के काल में गुर्जर साम्राज्य की गुजरात में राज्य सीमा काठियावाड़। हड्डोला शिलालेखों से यह सुनिश्चित होता है कि काठिय़ावाड़ के वर्तमान जिले काठियावाड़ क्षेत्र के प्रमुख शहरों में प्रायद्वीप के मध्य में मोरबी राजकोट, कच्छ की खाड़ी में जामनगर, खंबात की खाड़ी में भावनगर मध्य-गुजरात में सुरेंद्रनगर और वधावन, पश्चिमी तट पर पोरबंदर और दक्षिण में जूनागढ़ हैं। पुर्तगाली उपनिवेश का भाग रहे और वर्तमान में भारतीय संघ में जुड़े दमन और दीव संघ शासित क्षेत्र काठियावाड़ के दक्षिणी छोर पर हैं। सोमनाथ का शहर और मंदिर भी दक्षिणी छोर पर स्थित हैं विजित प्रदेश को  अपने सामन्त बलवर्मन के अधीन था ।

कालिंजर मंडल का अभियान-
पिता रामभद्र के कमजोर प्रशासन की बजह से कालिंजर मंडल उनके हात में रहते हुए भी विद्रोह के परिस्थिति बना रहा था जिसका पता बराह अभिलेख से पता लगता है जिसमे उनहोने परमार वंश तथा चंदेल वंश को पुनः अपना सामन्त नियुक्त किया था ।

कन्नौज के तरफ अभियान -मिहिर भोज के समय कन्नौज काफी उत्तम हालात में प्राप्त नही हुआ था वत्सराज के समय के जिते हुए प्रदेश कन्नौज मुंगेर भोजपुर आदि पर पाल वंशी देवपाल की तरफ से हमले हो रहे थे जिसको समाप्त करने के लिए मिहिर भोज ने

पाल वंश के साथ संघर्ष - देवपाल धर्मपाल का पुत्र एवं पाल वंश का उत्तराधिकारी था। इसे 810 ई. के लगभग पाल वंश की गद्दी पर बैठाया गया था। देवपाल ने लगभग 810 से 850 ई. तक सफलतापूर्वक राज्य किया। उसने 'प्राग्यज्योतिषपुर' (असम), उड़ीसा एवं नेपाल के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया था। लेकिन कन्नौज की तरफ हुए हमलों ने पाल वंश को खत्म करने की कगार पे लाकर खड़ा कर दिया था देवपाल को प्राप्त राज्य धर्मपाल का राज्य था लेकिन मुंगेर पर राजधानी स्थानांतरित पाल वंश ने गलती करदी जिसका खामयाजा पाल वंश को चुकाना पड़ा और  देवपाल ने कन्नौज में हुए युद्ध मे मिहिर भोज के साथ हुए युद्ध मे भोजपुर पालवंश से छीन लिया हर पुनः युद्ध मे शामिल होने आए देवपाल को अपनी राजधानी तक गबानी पड़ी अंतिम। समय मे आये पाल वंशी    कमजोर शाशक नारायणपाल (लगभग 860-915 ई.) पाल वंश के विग्रहपाल का पुत्र और उत्तराधिकारी था। इसका शासन काल काफ़ी बड़ा था। राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष ने पाल शासक नारायणपाल को पराजित किया था। प्रतिहारों ने इसका फायदा लेके पाल वंशी राजा से आमने सामने की लड़ाई मुंगेर में बुलाया जिसमे नारायण पाल को पराजय मिली और गुर्जर सम्राट ने  पूर्व की ओर अपनी शक्ति का विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया था। ऐसे समय में नारायणपाल को न सिर्फ़ मगध से हाथ धोना पड़ा, अपितु पाल राज्य का मुख्य भाग उत्तरी बंगाल भी उसके हाथ से निकल गया यही बजह है कि बिहार का भोजपुर और भोजपुरी से जरूर  संबंध है ।।

अरबो के साथ संघर्ष-अरब के खलीफा मौतसिम वासिक, मुत्वक्कल, मुन्तशिर, मौतमिदादी थे। अरब के खलीफा ने इमरान बिन मूसा को सिन्ध के उस इलाके पर शासक नियुक्त किया था। जिस पर अरबों का अधिकार रह गया था।  सिन्ध के अरब शासक इमरान बिन मूसा को पूरी तरह पराजित करके समस्त सिन्ध गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य का अभिन्न अंग बना लिया था। केवल मंसूरा और मुलतान दो स्थान अरबों के पास सिन्ध में इसलिए रह गए थे कि अरबों ने गुर्जर प्रतिहार सम्राट के तूफानी भयंकर आक्रमणों से बचने के लिए अनमहफूज नामक गुफाए बनवाई हुई थी जिनमें छिप कर अरब अपनी जान बचाते थे। सम्राट मिहिर भोज नही चाहते थे कि अरब इन दो स्थानों पर भी सुरक्षित रहें और आगे संकट का कारण बने इसलिए उसने कई बड़े सैनिक अभियान भेज कर इमरान बिन मूसा के अनमहफूज नामक जगह को जीत कर गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य की पश्चिमी सीमाएं सिन्ध नदी से सैंकड़ों मील पश्चिम तक पंहुचा दी और इसी प्रकार भारत देश को अगली शताब्दियों तक अरबों के बर्बर, धर्मान्ध तथा अत्याचारी आक्रमणों से सुरक्षित कर दिया था। इस तरह सम्राट मिहिर भोज के राज्य की सीमाएं काबुल से रांची तक सिंध में मिल चुकी थी ।घस्सन द्वारा नियुक्त मूसा इब्न यज़ीद अल झलिद की 836AD में युद्ध में बार बार मिल रही बार बार की पराजय से मौत हो जाने पर उसका बेटा अरमान सिंध का सूबेदार बना इस से पहले अरब गुर्जरों के बारे में इतना जान चुके थे कि युद्ध मैदान में इनके पेर कांपते थे गुर्जरों के सामने आने से लेकिन नव नियुक्त ऊर्जावान सूबेदार अरमान को अभी गुर्जरों की भाले और तीरों का खट्टा स्वाद चखना बांकी था , अरमान के पूर्वजों ने गुज्जरों से हार खाने के  बाद अरबो के अधीन इलाके राजा विहीन हो चुके थे उन जगहों पर स्थानीय  निवासी  जाट ओर मेड फिर से दबंग हो गये थे ओर अरबों की कमज़ोरी का फ़ायदा उठा कर काबू से बाहर हो गये थे। अरमान ने किक्कन के इलाक़े के जाटों पर धावा बोलकर उनको फिर से काबू में किया ओर फिर मेड जाती के 3 हज़ार लोगों को क़त्ल करके उनको काबू में क़िया। कदबील का राजा मोहम्मद इब्न ख़लील जिस ने आज़ादी की घोषणा कर दी थी को भी पकड़ कर क़त्ल किया गया ओर कदबील की सारी की सारी आबादी खुसदर तब्दील कर दी गयी। जाटों ओर मेडों को काबू में रखने के लिए उसने किक्कन के पास अल बैजा नाम का क़िला बनाया जहाँ सेना की इक टुकड़ी हमेशा तैनात रहती थी। अरमान ने सकर अल मेड नाम की मेड जाती से इक सेना भी तैयार की जिसको जाटों के दमन के काम में लगाया गया। लेकिन सिंध दरिया के पूरव में गुज्जरों के इलाक़े के जाट दरिया पार करके अरबों को तंग कर रहे थे इस परेशानी से कराह उठे अरबों जाटों से ज़ाज़िया वसूला गया ओर वसूली के बाद ज़ाज़िया देने वाले जाटों क हाथ पर मोहर लगा दी गयी। अरमान ने अब जाटों की इक सेना तैयार की ओर उसकी सहयता से सिंध दरिया के पूरव में बसने वाले मेडों पर हमला किया। मेडों ने इक झील के बीचों बीच इक कल्लरी नाम के टापू से डट कर मुकाबला किया ओर गुज्जर सेना के आने का इंतज़ार करते रहे क्योंकि अब यह इलाक़ा गुज्जरों के अधीन था।  अरब सेना के नज़ारी ओर यमानी सैनिकों में आपस में झगड़ा हो गया। अरमान ने यमनीओ का साथ दिया। इक नज़ारी सैनिक ऑमर इब्न अल अज़ीज़ अल हब्बरी ने अरमान को क़त्ल कर दिया। इस वक़्त मिहिर भोज गुज्जरों का राजा था, गुज्जरों के इलाक़े में अरबों की दखल अंदाज़ी उस की बर्दाश्त की हद से बाहर थी। फ़ज़ल इब्न महान सिंध का सूबेदार बनकर आया ओर उसने कल्लरी पर आक्रमण के लिए  60 किश्तियों में सवार सैनिक भेजे जिनमेसे सभी मोत के घाट उतार दिए गए असल मे यह सैनिक टुकड़ी मेड समुदाय के लोगों की थी जिनको अरमान ने अपने अधीन कर लिया था यही लोग अरमान की तरफ से युद्ध मे शामिल थे । बहुत से मेड मार दिए गये। आख़िर 839 AD में गुज्जरों के महान राजा मिहिर भोज ने सैनिक कार्यवाही करके सिंध दरिया के पूर्वी इलाक़े में अरमान द्वारा बनाई अलोर के पास छावनी को तबाह कर दिया ओर अरब सैनिकों का क़त्ल ए आम कर दिया। बचे हुए अरब दरिया पार करके भाग गए।  उन छावनियों से कुछ बच कर अनमहफूज नामक गुफाए बनवाई हुई थी जिनमें छिप कर अरब अपनी जान बचाने में सफल रहे इनके विरुद्ध एक अंतिम युद्ध हुआ जिसमें अरबों  के युद्ध करने का मनोबल ही खत्म कर दिया और मिहिर भोज के साथ हुए इन 30 वर्ष के असंख्य युद्धों से होने बाली जन धन की अपार  हास्य को पूरा करने के लिए अरबों ने अपना ध्यान भारत से हटा लिया था ।  इसी दौरान पूर्वी भारत के पाल शासक धर्मपाल ने जो की पंजाब तक आगे बढ़ चुका था ने मोके का फ़ायदा उठाकर पश्चिमी पंजाब में अरबों के इक इलाक़े यवन पर धावा बोल कर उस पर क़ब्ज़ा कर लिया। यह बात मिहिर भोज को हजम नही हुई ओर गुज्जर सेना ने कन्नौज के पास धर्मपाल की पंजाब से लौट रही सेना पर जबरदस्त हमला करके पालों को धूल चटा दी। धर्मपाल मुश्किल से जान बचा कर बंगालभाग गया।अरबों ओर गुज्जरों क बीच संघर्ष के लंबे दौर में हम देखते हैं की यह कोई छोटी-मोटी जंग नहीं थी बल्कि कई साल चलने वाला इक युद्ध था जिसमें कई जंगे हुईं जो राजस्थान से अधिक मध्य प्रदेश (उज्जैन), गुजरात(वल्लभी, नान्दोल आदि),  यह युद्ध थे गुर्जर और अरब भेड़ियों के बीच जिसका सामना गुर्जर वंश के प्रत्येक महाराज ने अपनी प्रजा की सुरक्छा नारायण की तरह की थी इन युद्धों का  नतीजा गुज्जरों की जीत ओर अरबों की हार में निकला ओर गुज्जर सरदार  अरबों से भारत की हिफ़ाज़त करते रहे मूलतः भारत मे जो हमले हुए वो थल मार्ग से हुए थे और राष्ट्रकूट पूर्ण सुरक्छित थे उनपर उनकी प्रजा पर कोई बाहरी हमला संभव ही नही था क्यों कि उनसे पहले गुर्जर राजाओं के राज्य की सरहदें धरती से समुद्र तक सहेज कर चल रही थी गुर्जरों ने सिर्फ आने बाले दुश्मनों से अपने राज्य देश को प्रजा को बचाया था जिसके चलते गुर्जर सम्राट नारायण और प्रतिहार की उपाधि से जाने गए ।।

गुर्जर साम्राज्य की राजधानी-  गुर्जर साम्राज्य की राजधानी क्रमसः दो भागों में विभक्त थी प्रथम मुख्य राजधानी ,उप राजधानी ,सांस्कृतिक राजधानी ,  जिनमे मुख्य राजधानी के तौर पर कन्नौज उज्जैन थी उप राजधानी के बतौर ग्वालियर ,भोजपुर ,मिहिरोली, पेहोवा ,तथा गुजरात मे थी इसके अतिरिक्त सांस्कृतिक राजधानी उज्जैन जो कि छीप्र नदी के किनारे और  ओसिया थी तथा बटेस्वर थी  चम्बल नदी  के किनारे  थ।

गुर्जर कालीन कला -गुर्जर सम्राटों के हातो बनाये गए मंदिर
तेली का मंदिर ग्वालियर
राज्यस्थान गुजरात मध्यप्रदेश कन्नौज हिमाचल  तक प्राप्त हुए हैं ।गुर्जर प्रतिहार कालीन कुछ मुख्य मंदिरों का हम वर्णन करते हैं जो इतिहास प्रसिद्ध हैं मध्यप्रदेश मुरैना इस्थित











  बटेस्वरा के 300 कुल मंदिरों का समूह जो एक खुद विश्वकर्मा के बनाये प्रतीत होते हैं जिनका निर्माण गुर्जर सम्राट मिहिर भोज ने कराया था । चोंसठ योगनी मंदिर जिसकी
नकल करके संसद भवन का निर्माण कराया गया है "शनीचरा  के पहाड़ बानमोर के नजदीक गुर्जर प्रतिहार कालीन तालाब जो जर्जर अवस्था मे है तथा विष्णु की मूर्ति चोरी की जा चुकी है रथ पर विराजे विष्णु की थी प्रतिमा रिपोर्ट के अनुसार मंदिर के अधिष्ठान भाग(वेदीबंद) साबुत है। इसके तल वाले हिस्से पर मंदिर का गर्भगृह और मंडप भी मौजूद है। इस मंदिर का शिखर टूटा हुआ था। और मंदिर की मुख्य प्रतिमा रथ पर विराजे हुए विष्णु की थी। अधिष्ठान के नीचे देवी देवताओं की मूर्तियां बनी हुई थीं। जिनमें गणेश, विष्णु, ब्रह्मा, कार्तिकेय की प्रतिमाएं ललिताशन में थीं, जबकि मंदिर का दक्षिण की तरफ वाला हिस्सा पूरी तरह से ढह चुका था।
बनी हुई थीं। जिनमें गणेश, विष्णु, ब्रह्मा, कार्तिकेय की प्रतिमाएं ललिताशन में थीं, जबकि मंदिर का दक्षिण की तरफ वाला हिस्सा पूरी तरह से ढह चुका था ,मंदिर के पास ही पुरातत्वविदों को एक कुंड भी मिला था। जो प्रतिहार शैली में बना हुआ था। कच्छपघात और प्रतिहार वास्तु शैली के कुछ और मंदिर भी इस कुंड के आसपास होने पाए गए थे, लेकिन अब इनके निशान और भी मिट गए हैं। ऐसे में अगर मंदिर के संरक्षण का काम शुरू नहीं हुआ तो मंदिर का बचा खुचा हिस्सा भी नष्ट हो जाएगा। क्योंकि मंदिर के ज्यादातर भग्नावशेष लगातार यहां से गायब होते जा रहे हैं और स्थानीय लोगों को भी इनके महत्व का पता नहीं है।शनिश्चरा के जंगलों में मिला विष्णु मंदिर 10वीं सदी का है। इस मंदिर का अध्ययन कर 2012 में ही रिपोर्ट आर्कलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को भेज दी थी। मंदिर के जीर्णोद्घार आदि का काम उन्हें ही करवाना होता है।(7)" इसके अतिरिक्त गोहद चोक ग्वालियर इटवाह हाईवे के पास खनन एरिया में गुर्जर कालीन शिव मंदिर जो पत्थर की खदानों में रोज होते बारूद के विस्फोट को सहता हुआ भी अटल खड़ा है लेकिन पुरातत्व विभाग के कान पर जूं तक नही रेंगती गुर्जर महाराजाओं के अवसेस संभालने के लिए  आगे चल कर फूप अटेर हाईवे मार्ग पर दुल्हागंन में इस्थित बौरेश्वर शिव मंदिर काफी अच्छी हालात में है इसके अतिरिक्त इस खबर का जिक्र वीरेन्द्र पाण्डेय, जिला पुरातत्व अधिकारी भिण्ड  जिन्होंने पत्रिका अखबार के माध्यम से जग जाहिर कराया था जिसका लेखन कार्य गौरव सेन ने किया था ।मडखेरा का गुर्जर प्रतिहार कालीन सूर्य मन्दिर जो बुंदेलखंड के टीकमगढ जिला मुख्यालय से 20km. दूर अपने आँचल मे गुर्जर प्रतिहार कला का मन्दिर आज भारत के गिने चुने सूर्य मन्दिरो मे अपनी स्थिती काफी मजबूती से कायम किये है !प्रतिहार कालीन ऊमरी का सूर्य मन्दिर मध्य प्रदेश के जिला टीकमगढ के ऊमरी मे  इस्थित है गुर्जर प्रतिहार कालीन विध्यमान प्राचीनकाल  का सूर्य मन्दिर  जिसका निर्माण सातवी  शताब्दी के अन्तिम दशक तथा आठवी शताब्दी  का निर्माण काल बताया जा रहा हो इस मन्दिर मे गुर्जर प्रतिहार राजाऔं का एक अभिलेख भी  मिला हे लेकिन पत्थर के छरण की बजह से ऊसका पढा जाना असम्भव हे इस मन्दिर के गर्भ ग्रह मे सप्त अश्व युक्त रथ पर आसीन  सूर्य नारायण भगवान की खडगासन मूर्ति बहुत ही सुन्दर तथा मनोहारी हैं  ।आपेश्वर महादेव मंदिर रामसीन गाँव का इस मंदिर का पुजारी कस्च्याप गोत्रीय रावल ब्राह्मण है , गुजरात मे गुर्जर कालीन साबरकांठा में मौजूद है इसके अतिरिक्त लाखेस्वर मंदिर  उत्तराखंड के अल्मोड़ा के 24 शिव मंदिर तथा कुल 240 मंदिर जिनमे 120 सबूत हैं आज भी हिमाचल के कुल्लू ,मध्य भारत के खुजराओ तेली का मंदिर चतुर्भुज मंदिर , देवगढ़ मंदिर,चंदेरी , दधिमाता मंदिर , समाधेस्वर मंदिर चित्तोड़ गढ़ ,आभानेरी की बाबड़ी , चंदेरी की बाबड़ी बड़ी छोटी बाबड़ी ,महरौली, ओसिया आदि काफी प्रसिद्ध ेेऐतिहआशिक स्थानों को गुर्जर प्रतिहारों ने खून पसीने से बनाया था ,

गुर्जर प्रतिहार वंश -
1-नागभट्ट (730-760 ईसवी)
2-ककुस्थ और देवशक्ति (760-778इस्वी)
3-वत्सराज (778-800इस्वी ) पत्नी सुंदरी देवी
4-नागभट्ट 2 (800-833इस्वी )
5-रामभद्र (833-835इस्वी ) पत्नी -महारानी अप्पा देवी
6- सम्राट मिहिर भोज(835-889 इस्वी),पत्नी -महारानी चंद्रभट्टारीक देवी
7-सम्राट महेन्द्रपाल प्रथम(885-910इस्वी)
8- सम्राट महिपाल (910-930इस्वी)
9-भोज द्वतीय (930-931)
10-विनायकपाल (931-944इस्वी)
11-महेन्द्रपाल द्वतीय (944-947इस्वी)
12-देवपाल (947-955इस्वी)
13-विजयपाल(955-985इस्वी)
14-राज्यपाल देव गुर्जर(985-1019)
15-त्रिलोचलपाल गुर्जर(1019-1030इस्वी)
16-यशपाल गुर्जर (1030-1040इस्वी ),  कुल 300 साल आर्यवृत पर गुर्जर वंश के इस परिवार ने राज किया था

गुर्जर राजवंश-
भड़ोच के (छाबड़ा/चाप/चपराना)
दद्दा1(580इस्वी),जयभट्ट1(605इस्वी),
दद्दा2 (प्रसंतराग-633 इस्वी),
दद्दा 3-(655इस्वी),जयभट्ट2-(680इस्वी),
दद्दा4-(706-734इस्वी), जयभट्ट3,दद्दा5-बाहुसहाय,
जयभट्ट4 -
भड़ोच के गुर्जरो ने हर्ष को कड़ी चुनोतियाँ देकर अकन राज्य स्थापित किया था इससे पहले दत्त गुर्जर नाम का गुर्जर वंशी हूण के तोरमाण का कर संग्रह कर्ता नियुक्त किया गया था जिसका नाम 499इस्वी की तारीख में आता है( 455-666इस्वी) तक हूण ने राज किया इनको अधिकतर इतिहासकार गुर्जर कहते हैं ,इनसे पहले मौखरी/मोरी वंश गुर्जरों का था आज भी मोरी गोत्र मालवा और चित्तौड़गढ़ के आसपास गुर्जरों में पाया जाता है , कुशाण वंश (65ईसा पूर्व-375ईस्वी)तक कुशाण गुर्जर वंशियों ने भारत के अखंड स्वरूप को विश्व पटल पर लेकर आये जिनसे कुसान ,कसाना,दोराता,अधाना, नेकाड़ी,चांदना, गोरसी,कपासिया आदि दर्जनों गोत्र निकले जिनका महान राजा कनिष्क जिन होने 78 इस्वी में शक संवत की स्थापना की थी , नर्सिंगढ के खींची गुर्जर ,बगड़ावत वंशी चौहान, चेंची वंशी चौहान अजमेर पुष्कर पर राज किया था ,1100इस्वी के बाद गुर्जरों के पास कम ही  राजवंश रह गए थे लेकिन फ़ीर भी गोविंदगढ़ ,
घुरैया बसई का घुरैया राजवंश-
महाराज श्री श्योपत सिंह घुरैया (1713-1750इस्वी)
महाराज राम पाल घुरैया (1750-1820इस्वी)
राजा राम घुरैया (1820इस्वी )
स्वर्गीय महाराज मुंशी सिंह घुरैया
वर्तमान इंजी रविन्द्र सिंह घुरैया तथा अन्य प्रसिद्ध घुरैया व्यक्तित्व एस पी यशवंत सिंह घुरैया , स्वामी हरिगिरि महाराज , श्री उत्तम सिंह घुरैया सरसपुरा , श्री नवल सिंह घुरैया ,सरनाम सिंह डीएसपी राजेन्द्र सिंह, डीएसपी भूपेंद्र सिंह आदि हैं ।राजोरगढ़ मंथन देव गुर्जर ,  फरीदाबाद अर्थात भड़ानक देश के  भड़ाना भड़ाना राज्य की ज्ञात वंशावली में,
कुमार पाल प्रथम (12वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध), महाराजाधिराज अजयपाल (1150ई0)
 हरिपाल (1170 ई0),
सोहन पाल (1196 ई0),
कुमार पाल द्वितीय थे।
दिल्ली के तंवर गुर्जर महाराज अनंगपाल तंवर वंश ,जयपाल खटाना सिंध , सबलगढ़ के बैसला(1700इस्वी) , शिवपुरी गुना के बीहड़ों में डांडे की खिरक इस्थित गुर्जर शेरों की गड़ी आज भी मौजूद है (1700इस्वी) घुरैया गोत्र के वंश, लंधौरा रियासत, समथर रियासत और झबरेडा रियासत लंधौरा रियासत के वर्तमान महाराजा श्री कुँवर प्रणव सिंह जी परमार हैं  (पँवार वंश-"1700-1947इस्वी), समथर रियासत के वर्तमान महाराजा श्री रणजीत सिंह जी जूदेव (खटाणा) (1730-1947इस्वी)
1- श्री नौने शाह (1735-1740)
 2-श्री मदन सिंह जूदेव(1740-1745)
3-श्री राजधर विश्हना  सिंह(1745-1790)
4- श्री राजा देवी सिंह जूदेव (1791-1800)
5-श्री राजा रणजीत सिंह (प्रथम)(1800-1815)
6- श्री राजा रणजीत सिंह (द्वितीय) (1815-1827)
7- श्री महाराजा हिन्दू पति जूदेव (1827-1858)
8-श्री महाराजा चतुर सिंह जूदेव(1865-1896)
9-श्री महाराजा वीर सिंह जूदेव (1896-1935)
10-   श्री महाराजा राधाचरण सिंह जूदेव (1935-1947)
11-  श्री महाराजा रणजीत सिंह जूदेव (तृतीय )  (1947- अब तक,झबरेडा रियासत के यशवीर व कुलवीर सिंह इन तीनो गुर्जर प्रतिहार रियासतों के महल और किले बहुत ही खूबसूरत है

मिहिर भोज सम्राट का कुशल मंत्रिमंडल-
1-महामंत्री
2-महासंधिविग्रहक
3-महासेनापति
 4-महादण्डनायक
 5-महाप्रतिहार
 6-अमात्य
 7-महाप्रधर्माध्यक्च
8-महा लक्चपरलिक
9-महासामंत

इन सभी नवरत्न पदों से मिहिर भोज का दरबार सजता था ।

व्यावसायिक संघ -गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के समय संघ का भी उल्लेख आता है पेहोवा अभिलेख के अनुसार घोड़ों के व्योपारियों का एक संघ भी बना था , सियादोनी अभिलेख के अनुसार तमोली, तेली, कलार, तथा ग्वालियर अभिलेख से मालकारों का जिक्र आता है  अन्य अभिलेख से कुंभकारों का भी जिक्र आता है ये सभी संघ अपनी कमाई का कुछ भाग राज्य के विकाश के लिए राजकोश में देते थे जो आपदा के समय आम जनता के ही काम आता था ।

भूमि नापने की इकाई -गुर्जर राजवंश में भूमि नापने की 7 इकाइयां थी कुलयवाप,द्रोणवाप, पाठक,हल, हस्त, पादावर्त, नल उपयोग में थी
संदर्व-
1- एपिग्राफिया इण्डिका भाग 1 पेज 175,
2-कल्हड़क्रत राजतरंगिणी 8/2518,
3-एपिग्राफिया इण्डिका भाग 1 पेज 159,
4-एपिग्राफिया इण्डिका भाग 1 पेज 184-190,
5-एपिग्राफिया इण्डिका भाग 1 पेज 162-179,
6-एपिग्राफिया इण्डिका भाग 5 पेज 211,
7- 1 सितम्बर 2015 दैनिक जागरण ,एसआर वर्मा, डिप्टी डायरेक्टर पुरातत्व संग्रहालय एवं अभिलेखागार ग्वालियर।।


Sunday, 18 November 2018

गूजरी भाषा

गुजरी भाषा व्याखया -
लेखक - इंजी. राम प्रताप सिंह 
कुषाणोँ ने बैक्ट्रीया पर अधिकार किया उसे समय ऊधर ग्रीक सभ्यता तथा लिपी ज्यादा मात्रा मे उपस्थित थी क्योंकि की ग्रीकों के अधीन यह जगह काफी समय सै थी जब कुषाणोँ ने अधिकार किया तो इनकी भाषा की जगह पर आर्य भाषा को लाये जबकी प्रारम्भिक समय मे ईधर खरोष्टी भाषा ही ग्रीक  लिपी मै चलती थी ज्यादा जिसके कुछ समय बाद यह बख्त्री भाषा का उपयोग होने लगा जंहा तक है रोबोटक अभिलेक के अनुसार इनके नामो के वर्णन मे "ओ" को ज्यादा महत्वदिया गया है जिसमे हम इस बात को देखते हैं की यह लोग बोलते कैसे थे उस समय Ozeno (Ujjain), Kozambo (Kausambi), Zagedo (Saketa), Palabotro (Pataliputra) and Ziri-Tambo (Janjgir(ship)-Champa). तथा कनिंघम के अनुसार जिस सिक्के पर कोर्स लिखा है अगर उसे गोर्स (गोर्सी) पढना चाहिये तो kus(a^-)na तो k=G, Gus(a^-)NA इसी क्रम मै आगे इनके सिक्कों पर तथा बी.ऐन.मुख़र्जी के अनुसारKomaro (Kumara) and called Maaseno (Mahasena) and called Bizago (Visakha), Narasao और Miro (Mihara). आदि शब्द इनके सिक्कों पर मिलते हैं जिनके अनुसार वासुदेव को वाजुदेव पढना चाहिये तथा स/श की जगह पर ये लोग "ज" का उपयोग करते थे अब हम कुसान/कुषान पर ध्यान देते हैं "क" को जब कनिंघम ने "ग" बताया है तब आगे "गुजान"(Gujan) जो की गूजर शब्द कि ही अप्रभंस है Komaro (Kumara) and called Maaseno (Mahasena) and called Bizago (Visakha), Narasao और Miro (Mihara). आदि शब्द इनके सिक्कों पर मिलते हैं जिनके अनुसार वासुदेव को वाजुदेव पढना चाहिये तथा स/श की जगह पर ये लोग "ज" का उपयोग करते थे अब हम कुसान/कुषान पर ध्यान देते हैं "क" को जब कनिंघम ने "ग" बताया है तब आगे "गुजान"(Gujan) जो की गूजर शब्द कि ही अप्रभंस है।जी. ए. ग्रीयरसन ने लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, खंड IX  भाग IV में गूजरी भाषा का का विस्तृत वर्णन किया हैं| गूजरों की भाषा गूजरी के बारे मे लिखने बाले सर डेन्जिल इबटसन ने कास्ट एन्ड ट्राइब्स आफ दी पिपुल (पंजाब कास्टस) 1883’’ इनकी भाषा पंजाबी तथा पश्तो सै बिल्कुल भिन्न हिन्दी है जो नरम जुबानी है "इसी भाषा को पूंछ ऐवटाबाद मे बोली जाती है जिसको नरम भाषा गूजरी कहते हैं यही भाषा अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान के सीमा प्रान्त इलाकों मे बहुतायात मे बोली जाती है यह क्षेत्र गुर्जरो के ही अधीन रहा है चाहे वो कसाणा /कुषाण हों या उनके वशंज खटाना या प्रतिहार हों लेकिन इतिहासकारों के अनुसार हूंणों के आगमन के समय इस भाषा का चलन कहा गया है जबकी इसका सम्बन्ध तो बख्त्री सै मिलते हैं | जाहीर  सी बात हे की कुसन वंश के बाद भारत में किसी भी  नयी जाती का आगमन नहीं हुआ हे जिस ने खुद की कोई संस्कृति का विकाश किया हो लेकिन वो सिरफ कुसन वंश ने किया था  जिस का जीता जगता सबूत उनकी भाषा तथा उनके अभिलेख मूर्तिकला आदि भारत में ज़िंदा हैं जिस से इस  का पता लगता हे की यह राजवंश  अपने समय में तररक्कि के किस पथ पे गमन कर रहा था लेकिन गुजरी भाषा के जो प्रमाड कुषाणों के समय में मिलते हैं वो किसी भी समय में नहीं मिलते हैं कुसनो के बाद सबसे बड़ा माइग्रेशन हूणों  का हुआ जिन की कोई भासा नहीं थी अगर हूडों की कोई भाषा होती तो माना जा सकता था की कुसन काल की भासा का इनके साथ कुछ मिलावट होसकती थी मगर ऐसा नहीं हुआ आज भी हम देखें तो कुसन और हूँड़ों के राज करने की जो रियासतें थीं उनमे मूलरूप से गुजरी भाषा का ही चलना हे उत्तरप्रदेश के गुर्जर बहुल एरिया में आज  भी राम राम को रोम रोम बोलै जाता हे,ओ को कॉमन कर के बोलै जाता हे जब आज कुषाण राजवंश को ख़त्म हुए    २००० वर्ष हो चुके हैं लेकिन हमारे लोगों की आज भी वोही भासा हे |  वैसे ही गूजरी बोली  में राम को रोम, पानी को पोनी, गाम को गोम, गया को गयो आदि बोला जाता हैं|इसी  भासा में कुसानो के सिक्कों   उन्हें बाख्त्री में कोशानो लिखा हैं और वर्तमान में गूजरी में  भी ओ को अतिरिक्त जोड़ के  कोसानो बोला जाता हौं| अतः कुषाणों द्वारा प्रयुक्त बाख्त्री भाषा और आधुनिक गूजरी भाषा की समानता भी कुषाणों और गूजरों की एकता को प्रमाणित करती हैं| ​
गुर्जरों की हमेशा ही अपनी विशिष्ट भाषा रही हैं| गूजरी भाषा के अस्तित्व के प्रमाण सातवी शताब्दी से प्राप्त होने लगते हैं| सातवी शताब्दी में राजस्थान को गुर्जर देश कहते थे, जहाँ गुर्जर अपनी राजधानी भीनमाल से यहाँ शासन करते थे| गुर्जर देश के लोगो की अपनी गुर्जरी भाषा और विशिष्ट संस्कृति थी| इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि आधुनिक गुजराती और राजस्थानी का विकास इसी गुर्जरी अपभ्रंश से हुआ हैं| वर्तमान में जम्मू और काश्मीर के गुर्जरों में यह भाषा शुद्ध रूप में बोली जाती हैं|  जी. ए. ग्रीयरसन ने लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, खंड IX  भाग IV में गूजरी भाषा का का विस्तृत वर्णन किया हैं| इतिहासकारों के अनुसार कुषाण यू ची कबीलो में से एक थे, जिनकी भाषा तोखारी थी| तोखारी भारोपीय समूह की केंटूम वर्ग की भाषा थी| किन्तु बक्ट्रिया में बसने के बाद इन्होने मध्य इरानी समूह की एक भाषा को अपना लिया| इतिहासकारों ने इस भाषा को बाख्त्री भाषा कहा हैं| कुषाणों द्वारा बोले जाने वाली बाख्त्री भाषा और गुर्जरों की गूजरी बोली में खास समानता हैं| कुषाणों द्वारा बाख्त्री भाषा का प्रयोग कनिष्क के रबाटक और अन्य अभिलेखों में किया गया हैं| कुषाणों के सिक्को पर केवल बाख्त्री भाषा का यूनानी लिपि में प्रयोग किया गया हैं| कुषाणों द्वारा प्रयुक्त बाख्त्री भाषा में गूजरी बोली की तरह अधिकांश शब्दों में विशेषकर उनके अंत में ओ का उच्चारण होता हैं| जैसे बाख्त्री में उमा को ओमो, कुमार को कोमारो ओर मिहिर को मीरो लिखा गया हैं, वैसे ही गूजरी बोली  में राम को रोम, पानी को पोनी, गाम को गोम, गया को गयो आदि बोला जाता हैं| इसीलिए कुषाणों के सिक्को पर उन्हें बाख्त्री में कोशानो लिखा हैं और वर्तमान में गूजरी में कोसानो बोला जाता हौं| अतः कुषाणों द्वारा प्रयुक्त बाख्त्री भाषा और आधुनिक गूजरी भाषा की समानता भी कुषाणों और गूजरों की एकता को प्रमाणित करती हैं| हालाकि बाख्त्री और गूजरी की समानता पर और अधिक शोध कार्य किये जाने की आवशकता हैं, जो कुषाण-गूजर संबंधो पर और अधिक प्रकाश डाल सकता हैं|
Organizations working for Gojri:
Tribal Research and Cultural Foundation PoonchGurjar Desh Charitable Trust JammuAnjmun Gujjran SrinagarJammu and Kashmir Anjuman Taraqi Gojri Adab RajouriBhartya Gurjar Pareshad Uatter Pradesh.Anjuman Gojri Zuban-o-Adab Tral KashmirOrganisation of Himalyan Gujjars PoonchAdbi Sangat Wangat KashmirAdbi Majlis Gojri JammuSarwari Memorial Gojri Society JammuGojri Dramatic Club JammuGujjar Writers Association Uri Baramulla.Gojri Anjumun BadgamGujjar Manch KathuaBazm-i-Adab Kalakote RajouriGojri Development Center Karnah KupwaraHalqa.e.Gojari Adab GilgitBazm-e-Gojri, Pakistan (Rawalpindi/islamabad)

कुषाणों की मिश्रित साखा

कंम्बोज रक्त कुल संबंध।
लेखक-इंजी राम प्रताप सिंह
कंबोज उत्तरापथ के गांधार के निकट स्थित प्राचीन भारतीय जनपद था जिसकी ठीक-ठाक स्थिति दक्षिण पश्चिम के पुँछ के इलाके के अंतर्गत मानी जा सकती है। प्राचीन संस्कृत एवं पाली साहित्य में कंबोज और गांधार का नाम प्राय: साथ-साथ आता है। जिस प्रकार गांधार के उत्कृष्ट ऊन का वर्णन ऋग्वेद में मिलता है (१,१२६) उसी प्रकार कंबोज के कंबलों का उल्लेख यास्क के निरुक्त में हुआ है (२, २)। वास्तव में यास्क ने 'कंबोज' शब्द की व्युत्पत्ति ही 'सुंदर कंबलों का उपभोग करनेवाले' या विकल्प में सुंदर भोजन करनेवाले लोग-इस प्रकार की है। गांधार और कंबोज इन दोनों जनपदों के अभिन्न संबंध की परंपरा से ही इनका सान्निध्य सिद्ध हुआ है। गांधार अफगानिस्तान (कंदहार) का संवर्ती प्रदेश था और इसी के पड़ोस में पूर्व की ओर कंबोज की स्थिति थी। कंबोज प्राचीन भारत के १६ महाजनपदों में से एक था। इसका उल्लेख पाणिनी के अष्टाध्यायी में १५ शक्तिशाली जनपदों में से एक के रूप में भी मिलता है। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय , महावस्तु मे १६ महाजनपदों में भी कम्बोज का कई बार उल्लेख हुआ है - ये गांधारों के समीपवर्ती थे। इनमें कभी निकट संबंध भी रहा होगा, क्योंकि अनेक स्थानों पर गांधार और कांबोज का नाम साथ साथ आता है। इसका क्षेत्र आधुनुक उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान और अफगानिस्तान में मिलता है। राजपुर, द्वारका तथा Kapishi[1] इनके प्रमुख नगर थे। इसका उल्लेख इरानी प्राचीन लेखों में भी मिलता है जिसमें इसे राजा कम्बीजेस के प्रदेश से जोड़ा जाता है।
प्राचीन वैदिक साहित्य में कंबोज देश या यहाँ के निवासी कांबोजों के विषय में कई उल्लेख हैं जिनसे ज्ञात होता है कि कंबोज देश का विस्तार उत्तर में
कश्मीर से हिंदूकुश तक था। वंश ब्राह्मण में कंबोज के औपमन्यव नामक आचार्य का उल्लेख है।
शतपथ ब्राह्मण के एक स्थल से ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तरी लोगों अर्थात उत्तरी कुरुओं की तथा कुरु-पांचालों की बोली समान और शुद्ध मानी जाती थी।
वाल्मीकि- रामायण में कंबोज, वाल्हीक और वनायु देशों को श्रेष्ठ घोड़ों के लिये उत्तम देश बताया है, जो इस प्रकार है:
“ ' कांबोज विषये जातैर्बाल्हीकैश्च हयोत्तमै: वनायुजैर्नदीजैश्च पूर्णाहरिहयोत्तमै: [3] „
महाभारत के अनुसार अर्जुन ने अपनी उत्तर दिशा की दिग्विजय-यात्रा के प्रसंग में दर्दरों या दर्दिस्तान के निवासियों के साथ ही कांबोजों को भी परास्त किया था-
'गृहीत्वा तु बलं सारं फाल्गुन: पांडुनन्दन: दरदान् सह काम्बोजैरजयत् पाकशासनि:'
महाभारत और राजतरंगिणी में कंबोज की स्थिति उत्तरापथ में बताई गई है।महाभारत में कहा गया है कि कर्ण ने राजपुर पहुंचकर कांबोजों को जीता, जिससे राजपुर कंबोज का एक नगर सिद्ध होता है- 'कर्ण राजपुरं गत्वा काम्बोजानिर्जितास्त्वया'। कालिदास ने रघुवंश में रघु के द्वारा कांबोजों की पराजय का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है कि :“ काम्बोजा: समरे सोढुं तस्य वीर्यमनीश्वरा:, गजालान् परिक्लिष्टैरक्षोटै: सार्धमानता: „इस उद्धरण में कालिदास ने कंबोज देश में अखरोट वृक्षों का जो वर्णन किया है वह बहुत समीचीन है। इससे भी इस देश की स्थिति कश्मीर के आस पास प्रतीत होती हैं।महाभारत में कहा गया है कि कर्ण ने राजपुर पहुंचकर कांबोजों को जीता, जिससे राजपुर कंबोज का एक नगर सिद्ध होता है- 'कर्ण राजपुरं गत्वा काम्बोजानिर्जितास्त्वया'। चीनी यात्री हुएन-सांग ने भी अपनी भारत यात्रा के दोरान कंबोज में किसी राजपुर नगर का उल्लेख किया था। [8] महाभारत में हिमालय के उत्तर पश्चमी भाग में बाह्वीक के निकटवर्ती क्षेत्र को दरद देश माना गया है (आदि पर्व ६७/५८ )।. पुराणो में दरद जाति को काम्बोज व बर्बर जातियों के मध्य रखा गया है। कश्मीर के उत्तर भाग में आज भी दरद पुरी  है।  शायद इस जाति का प्रसार अवश्य हुआ है  किन्तु शक /कुषाण /यूची जाति के साथ मिश्रण से इस जाति की अपनी विशिष्टता समाप्त हो गयी होगी।महाभारत में कंबोज के कई राजाओं का वर्णन है जिनमें सुदर्शन और चंद्रवर्मन मुख्य हैं। कौटिल्य अर्थशास्त्र में कंबोज के 'वार्ताशस्त्रोपजीवी' (खेती और शस्त्रों से जीविका चलाने वाले) संघ का उल्लेख है जिससे ज्ञात होता है कि मौर्यकाल से पूर्व यहां गणराज्य स्थापित था। मौर्यकाल में चंद्रगुप्त के साम्राज्य में यह  गणराज्य विलीन हो गया होगा।कुसान /शक/हूण की अधिकतर मिश्रित है जिसके चलते ये समझ ना मुश्किल है कि ये जात किस से उत्पन्न हुई इतिहासकारो ने अधिकतर इतिहासकारों का विचार है कि ये कंबोडिया से आये हैं लेकिन जो किसी भी तर्क से संभव नही है क्यों कि सिर्फ विचार कर के मत देना पूर्ण गलत है जिस कंम्बोज की नश्ल शक,कुषाण, हूण की नश्ल के दिखते हैं A branch of Central Asian Kambojas seems also to have migrated eastwards towards Tibet in the wake of Kushana (1st century) or else Huna (5th century) pressure and hence their notice in the chronicles of Tibet (Kam-po-tsa, Kam-po-ce, Kam-po-ji) and Nepal (Kambojadesa). [ "The view that Nepali Traditions apply name Kamboja Desha to Tibet is based on the statement made by Foucher, [Iconographie bouddhique pp 134-135] on the authority of Nepali Pandit of B.H Hdgson. But it is supported by two manuscripts [No 7768 & 7777] कम्बोज  मूल रूप से आर्यन्स नश्ल के थे जिनको अधिकतर इतिहासकारों ने आर्यन्स नश्ल का ही बताया है Kshatriya clans of north-west must have descended from the Ancient Kambojas. [ For reference to overlap of the Kamboj  clan names, see Glossary of Tribes, II, p 444, fn. iii.कंम्बोज सूर्य पूजा करने के कारण इनको सूर्यवंशी होने का भी मत है The Kamboj in Phillaur, District Jullundur, too claimed to be "Suryavanshi" [Glossary of Tribes, Vol II, p 443 fn, H. A. Rose.].जातियों की पहचान के लिये अंग्रेज-अन्वेषकों ने कई साधन निकाले हैं जिनमें से दो मुख्य है -
1. शारीरिक बनावट।
2. भाषा-विज्ञान।
शरीर-शास्त्र के साधन से अन्वेषकों ने मनुष्य जाति को पांच भागों में विभक्त कर दिया है -
 1. आर्य,
2. मंगोलियन,
3. मलय,
4. हबशी
5. अमेरिकन
रंग के हिसाब से ये ही जातियां गौरी, पीली, बादामी, काली और लाल कहलाती है। आर्य लोग रंग के गोरे या उजले उंचे ललाट वाले, सुआसारी नाक, चौड़ी छाती और काली आंखें तथा लम्बी बाहें और टांगें रखने वाले होते हैं। मंगोलियन अथवा तातारियों की चिपटी नाक, पीला रंग, चपटा माथा होता है। यही बजह होती है किसी जाति की पूर्वज और वंसजों की पहचान के जिसके तर्क मौजूद हैं  मि. ई. बी. हेवल लिखते हैं "Ethnographic investigations show that the Indo-Aryan type described in the the Hindu epic - a tall, fair complexioned, long headed race, with narrow prominent noses, broad shoulders, long arms, thin-waists like a lion and thin legs like a deer"कंम्बोज जाती का कंम्बोज महाजनपद से समस्त भारत के उत्तर मध्य भू भाग में प्रवेश हुआ जिसके चलते आज ये अपने मूल को भूल चुके हैं और ये आज जाट ,राजपूत,खत्री जैसी समस्त जातियों में मौजूद हैं साथ ही हिन्दू मुसलिम सिक्ख धर्म मे भी मौजूद हैं तथा साथ कुछ हिस्सों में स्वतंत्र कंम्बोज जाती के रूप में भी हैं कंम्बोज जाती आज गुजरात During Indo-Scythian invasion of India in the pre-Kushana period, Kambojas appear to have migrated to Gujrat, Southern India, कन्नौज ,दिल्ली ,हरयाणा ,पंजाब में मिल सकती है  Pehova Prasati Evidence

Even after settling in India, the Kambojas had continued to maintain their position in science and arts. The Pehova Prasati (panegyric) of the reign of king Mahendrapala of Kanauj (10th century AD) refers to one "Acyuta Kamboja", son of "Vishnu Kamboja" who has been described as a great Sanskrit scholar. Acyuta Kamboja is also styled as the personification of "Vaidya Dhanavantri", the fatherof Ayurvedic systmof medicine [Epigraphiia Indica Vol I, 1892, p 247.] लेकिन इनका मूल वंश गुर्जर कहना कोई अतिशयोक्ति नही होगी जिनके गोत्र नश्ल शारीरिक बनाबट गुर्जरों जैसी है The Kamboj undoubtedly are, and therefore, the Arains, in all probability, are a mixture of numerous diverse ethnic elements from the ancient Sakas,Kambojas, Yavanas, Pahlavas, Hunas, Gurjaras etc. It is notable that the title of "Mahar(mihir)" is prevalent both among the Arains as well as the Gujjars [The Tribes and Castes of the North-western Provinces and Oudh, 1896, p 206, William Crooke - Ethnology.] तो उनको क्या कहा जा सकता है कंम्बोज जाती को कन्नौज में रहने की जगह गुर्जर सम्राट महिपाल देव के समय मे मिली थी सम्भवतः सम्भव है कि इनको पहोवा से कन्नौज तक लाने का श्रेय भी महिपाल देव का ही था

गुर्जर घार के तांत्रिक विश्व विद्यालय

गुर्जर घार भाग 2-
लेखक- इंजी राम प्रताप सिंह     
चौंसठ योगिनी मंदिर को अपने जमाने का तांत्रिक यूनिवर्सटी के लिए परिधत्ता प्राप्त हुई थी विदेसी यात्रियों ने इस यूनिवर्सटी में अपने अध्ययन को पूरा किया था-
निर्माण काल : आठवी सदी से नो वी सदी,
स्थान : मितावली, मुरैना ,गुर्जर घार (मध्य प्रदेश)
निर्माता :  गुर्जर सम्राट मिहिर भोज और महिपाल
ख़ासियत : प्राचीन समय में यहां तांत्रिक अनुष्ठान होते थे दुनिया मे 4 ही यूनिवर्सटी थी तांत्रिक साधना के लिए ,भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस मंदिर को प्राचीन ऐतिहसिक स्मारक घोषित किया है।इकंतेश्वर महादेव मंदिर' के नाम से भी जाना जाता है।
आकार : गोलाकार, 101 खंभे कतारबद्ध हैं। यहां 64 कमरे हैं, जहां शिवलिंग स्थापित है। आज इसकी कला का अद्भुत नमूना भारतीय संसद भवन है ।
ऊंचाई : भूमि तल से 300 फीट             भारत में चार प्रमुख चौसठ-योगिनी मंदिर हैं। दो ओडिशा में तथा दो मध्य प्रदेश में। लेकिन इन सब में मध्य प्रदेश के मुरैना स्तिथ चौसठ योगिनी मंदिर का विशेष महत्तव है। इस मंदिर को गुजरे ज़माने में तांत्रिक विश्वविद्यालय कहा जाता था। उस दौर में इस मंदिर में तांत्रिक अनुष्ठान करके तांत्रिक सिद्धियाँ हासिल करने के लिए तांत्रिकों का जमवाड़ लगा रहता था। मौजूदा समय में भी यहां कुछ लोग तांत्रिक सिद्धियां हासिल करने के लिए यज्ञ करते हैं।ग्राम पंचायत मितावली, थाना रिठौराकलां, ज़िला मुरैना (मध्य प्रदेश) में यह प्राचीन चौंसठ योगिनी शिव मंदिर है। इसे ‘इकंतेश्वर महादेव मंदिर’ के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर की ऊंचाई भूमि तल से 300 फीट है। इसका निर्माण तत्कालीन प्रतिहार क्षत्रिय राजाओं ने किया था। यह मंदिर गोलाकार है। इसी गोलाई में बने चौंसठ कमरों में हर एक में एक शिवलिंग स्थापित है। इसके मुख्य परिसर में एक विशाल शिव मंदिर है।भारतीय पुरातत्व विभाग के मुताबिक़, इस मंदिर को नवीं सदी में बनवाया गया था। कभी हर कमरे में भगवान शिव के साथ देवी योगिनी की मूर्तियां भी थीं, इसलिए इसे चौंसठ योगिनी शिवमंदिर भी कहा जाता है। देवी की कुछ मूर्तियां चोरी हो चुकी हैं। कुछ मूर्तियां देश के विभिन्न संग्रहालयों में भेजी गई हैं। तक़रीबन 200 सीढ़ियां चढ़ने के बाद यहां पहुंचा जा सकता है। यह सौ से ज़्यादा पत्थर के खंभों पर टिका है। किसी ज़माने में इस मंदिर में तांत्रिक अनुष्ठान किया जाता था।यह स्थान ग्वालियर से करीब 40 कि.मी. दूर है। इस स्थान पर पहुंचने के लिए ग्वालियर से मुरैना रोड पर जाना पड़ेगा। मुरैना से पहले करह बाबा से या फिर मालनपुर रोड से पढ़ावली पहुंचा जा सकता है। पढ़ावली ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। यही वह शिवमंदिर है, जिसको आधार मानकर ब्रिटिश वास्तुविद् सर एडविन लुटियंस ने संसद भवन बनाया।                 आघव गुर्जर                      शेष अगले भाग में जारी...........

गुर्जर घार के प्राचीन जनपद

गुर्जर घार भाग 3 -
लेखक -इंजी. राम प्रताप सिंह
कुतवार जनपद परिचय एतिहासिक और कथात्मक तथा साहित्यात्मक कुतवार का महत्व काफी महान है विगत ज्ञात तथा लिखित इतिहास के तर्क वितर्क में ना फस के  हम सिर्फ कुतवार के सभी विवरणों को इसमे लेंगे कुतवार, कोटवार ,कुन्तलपुर, कोटबार, कुन्तिभोज  के नामो से इतिहास में प्रसिद्ध प्राचिन जनपद का इतिहास गौरव का रहा है जिसमे कुतवार की वर्तमान स्थति यह आसन नदी के तट पर स्थित है और ग्वालियर से 20 मील है और बानमोर मुरैना से 16किलोमीटर दूर है । कांतिपुरी जो प्राचीन पद्मावती के निकट ही स्थित थी गुप्तकाल में  नागराजाओं के अधिकार में थी।  विष्णुपुराण 4,24,64 में पद्मावती में नागराजाओं का उल्लेख है। कांतिपुरी के कुंतीपुरी , कुंतीपद, और कुंतलपुरी नाम भी मिलते हैं। पांडवों की माता कुंती संभवत: इसी नगरी के राजा कुंतिभोज की पुत्री थी इसके अतिरिक्त कुंती भोज का विवरण महाभारत "शिरॊ ऽभूथ थरुपथॊ राजा महत्या सेनया वृतः, कुन्तिभॊजश च चैथ्यश च चक्षुष्य आस्तां जनेश्वर "Mahabharata (VI.46.45) लेकिन हमको कुंती भोज ही मिलता है इसकी प्राचीनता हम उस जगह पे जाकर देख सकते हैं "द्रविडाः सिंहलाश चैव राजा काश्मीरकस तदा, कुन्तिभॊजॊ महातेजाः सुह्मश च सुमहाबलः Mahabharata (II.31.12)" हमे कुंतीभोज के कुशल राज्य का पता लगता है "नवराष्ट्रं विनिर्जित्य कुन्तिभॊजम उपाथ्रवत, परीतिपूर्वं च तस्यासौ परतिजग्राह शासनम Mahabharata (II.28.6)"कुंती के पिता कुंति भोज ने राजधानी कुंतलपुर में आसन नदी के किनारे अपनी पुत्री के लिए बनवाया था,इसी मंदिर के किनारे कुंती ने सूर्य देव की कृपा से महाभारत युद्ध के महारथी कर्ण को जन्म दिया लोकलाज से बचने के लिए  इसी मंदिर के किनारे बने घाट से सोने की पेटी में कवच-कुंडलों के साथ कर्ण को सुरक्षित रख कर नदी में बहा दिया था। आसन नदी के के किनारे आज भी पत्थरों पे रथ तथा घोड़ों के निसान मौजूद हैं ।कुंती भोज की महाभरत के युद्ध मव हत्या के बाद कुतवार का साहित्यक अता पता नही लगता है । अपितु ऐतिहासिक काल का उद्गम नाग वंश और वंसफ़र गुर्जर और कुषाण गुर्जर काल मे निकलता है ,कनिघम के अनुसार कुतवार पे प्रारमब्भिक समय मे  नाग वंश ने वंसफ़र के अधीन सत्ता संभाली और उसके बाद ये कुसानो के अधीन आ गये जिस के चलते नागों ने अपने दूर गामी राज्य पवाया ,विदिशा, और मथुरा से संपर्क बना लिए जिसके चलते इनके कुतवार पे भारशिव का उदय होता है  140ईसा में जिसके बाद

नवा नाग जिसकी उम्र के 27 वर्ष में उसने नवा नाग वंश की स्थापना की थी, भारशिव (140-170 इस्वी ),वीरसेन 170-210 अपनी उम्र के 34 साल में  ये मथुरा और कुतवार की साझी सत्ता के संपर्क स्थापित किये इसने ,हया नाग(210-245) ,ट्राय नाग(245-250 )बरहिना नाग (250-260),चराज नाग ( 30 साल) (260-290)भाव नाग (290-315 इस्वी ),रुद्रसेन नाग (315-344 इस्वी )          शेष अगली भाग में जारी..............

ग्वालियर एक परिचय

गुर्जर घार भाग 4-
लेखक- इंजी.राम प्रताप सिंह 

ग्वालियर को गुर्जर सम्राज्य के बाद गुर्जर घार के नाम से जाना जाने लगा था , ग्वालियर नगर और क्षेत्र का प्राचीनतम नाम गोपराष्ट्र मिलता है। पहले यह गोपराष्ट्र चेदि जनपद के अंतर्गत था। कालांतर में यह स्वतंत्र जनपद हो गया है। उस समय जनपद का अर्थ राष्ट्र के रूप में प्रयोग होने लगा।
इसके चारों ओर जनपद थे जिसमे, सूरसेन चेदि, निषध, आदि राष्ट्र थे। ग्वालियर का सर्वाधिक प्राचीन उल्लेख मार्कण्डेय पुराण में गोवर्धनपुरम्‌, मानसिंह तोमर (1489-1510 ई.) के शिलालेख में"गोवर्धनगिरि"  सन्‌ 525 ई. के "मातृचेट" शिलालेख में "गोपाह्य" के नाम से मिलता है। मिहिरकुल के राज्य के पंद्रहवें वर्ष (सन्‌ 527 ई.) में यहाँ के गढ़ को गोपमूधर, दसवीं शताब्दी में गुर्जर प्रतिहारों के शिलालेख में गोपाद्रि तथा गोपागिरि, रत्पनाल कच्छपघात के लगभग 1115 ई. के शिलालेख में गोपाद्रि तथा गोपागिरि, रत्नपाल कच्छपघात के लगभग 1115 ई. के शिलालेख में "गोपक्षेत्र" विक्रम संवत्‌ 1150 ई. के शिलालेख में गोपाद्रि तथा अनेक शिलालेखों में "गोपाचल" "गोपशैल" तथा "गोपपर्वत" वि.सं. 1161 के शिलालेख में गोपलकेरि, ग्वालियर खेड़ा कहा गया है।अपभ्रंश भाषा में कवियों ने इस दुर्ग को "गोपालगिरि, गोपगिरि, गोव्वागिरि"कहा है। हिंदी में सबसे पहले सन्‌ 1489 में कवि मानिक ने "ग्वालियर" संज्ञा का प्रयोग किया है। तुर्क इतिहासकारों ने गालेवार या गलियूर लिखा है।मराठी में "ग्वाल्हेर" कहते हैं। कश्मीर के सुल्तान नेतुल आवेदीन के  राजकवि जीवराज ने "गोपालपुर"के नाम से संबोधित किया है।भट्टारक सुरेंद्र कीर्ति ने सं. 1740 में रचि रविव्रत कथा में ग्वालियर को गढ़ गोपाचल लिखा है- "गढ़गोपाचल नगर भलो शुभ शानो" साथ ही अनेक जैन ग्रंथ प्रशस्तियों में एवं जैन प्रतिमा प्रशस्तियों में गोपाचल दुर्ग, गोपाद्रौ, गोयलगढ़, गोपाचल आदि नामों का अधिकतम उल्लेख मिलता है। ग्वालियर में मौजूद ग्वालियर किले का निर्माण 8वीं शताब्दी में किया गया था. तीन वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैले इस किले की ऊंचाई 35 फीट है. यह किला मध्यकालीन स्थापत्य के अद्भुत नमूनों में से एक है. यह ग्वालियर शहर का प्रमुख स्मारक है जो गोपांचल नामक छोटी पहाड़ी पर स्थित है. लाल बलुए पत्थर से निर्मित यह किला देश के सबसे बड़े किले में से एक है और इसका भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान है.बहुत समृद्ध है ग्वालियर के किले का इतिहास इतिहासकारों के दर्ज आंकड़े में इस किले का निर्माण सन 727 ईस्वी में सूर्यसेन नामक एक स्थानीय सरदार ने किया जो इस किले से 12 किलोमीटर दूर सिंहोनिया गांव का रहने वाला था. इस किले पर कई  राजाओं ने राज किया है. किले की स्थापना के बाद करीब 989 सालों तक इस पर गुर्जर वंश ने राज किया जिसके गुर्जर साम्राट देवराज, वत्सराज, ककुस्थ, रामभद्र, मिहिरभोज महान गुर्जर सम्राट, महिपाल गुर्जरेंद्र, महेन्द्रपाल आदि गुर्जर वंश के राजाओं ने ग्वालियर पर 250 साल राज किया जिसकी जानकारी हमे ग्वालियर प्रस्सति और ,सागर ताल अभिलख से मिलती है ,गुर्जर सम्राट मिहिर भोज महान की बनाई गयी तेली का मंदिर , सास बहु का मंदिर ,चतुर्भुज मंदिर बनबाई गए थे आदि का निर्माण बन बाये थे । इसके बाद इस पर प्रतिहार वंश ने राज किया. 1023 ईस्वी में मोहम्मद गजनी ने इस किले पर आक्रमण किया लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा. 1196 ईस्वी में लंबे घेराबंदी के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस किले को अपनी अधीन किया लेकिन 1211 ईस्वी में उसे हार का सामना करना पड़ा. फिर 1231 ईस्वी में गुलाम वंश के संस्थापक इल्तुतमिश ने इसे अपने अधीन किया इसके बाद मानसिंह तोमर ने अपने कब्जे में कर लिया था  (1486-1516) जिन्होंने अपनी पत्नी मृगनयनी के लिए गूजरी महल बनवाया. 1398 से 1505 ईस्वी तक इस किले पर तोमर वंश का राज रहा.मानसिंह ने इस दौरान इब्राहिम लोदी कीअधीनता  स्वीकार ली थी. लोदी की मौत के बाद जब मानसिंह के बेटे विक्रमादित्य को हुमायूं ने दिल्ली दरबार में बुलाया तो उन्होंने आने से इंकार कर दिया. इसके बाद बाबर ने ग्वालियर पर हमला कर इसे अपने कब्जे में लिया और इसपर राज किया. लेकिन शेरशाह सूरी ने बाबर के बेटे हुमायूं को हराकर इस किले को सूरी वंश के अधीन किया. शेरशाह की मौत के बाद 1540 में उनके बेटे इस्लाम शाह ने कुछ समय के लिए अपनी राजधानी दिल्ली से बदलकर ग्वालियर कर दिया. इस्लाम शाह की मौत के बाद उनके उत्तराधिकारी आदिल शाह सूरी ने ग्वालियर की रक्षा का जिम्मा हेम चंद्र विक्रमादित्य (हेमू) को सौंप खुद चुनार चले गए. हेमू ने इसके बाद कई विद्रोहों का दमन करते हुए कुल 1553-56 के बीच 22 लड़ाईयां जीतीं. 1556 में हेमू ने ही पानीपत की दूसरी लड़ाई में आगरा और दिल्ली में अकबर को हराकर हिंदू राज की स्थापना की. इसके बाद हेमू ने अपनी राजधानी बदलकर वापस दिल्ली कर दी और पुराना किला से राज करने लगा.इसके बाद अकबर ने ग्वालियर के किले पर आक्रमण कर इसे अपने कब्जे में लिया और इसे कारागर में तब्दील कर दिया गया. मुगल वंश के बाद इसपर राणा और जाटों का राज रहा फिर इस पर मराठों ने अपनी पताका फहराई.1736 में जाट राजा महाराजा भीम सिंह राणा ने इस पर अपना आधिपत्य जमाया और 1756 तक इसे अपने अधीन रखा. 1779 में सिंधिया कुल के मराठा छत्रप ने इसे जीता और किले में सेना तैनात कर दी. लेकिन इसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने छीन लिया. फिर 1780 में इसका नियंत्रण गौंड राणा छत्तर सिंह के पास गया जिन्होंने मराठों से इसे छीना. इसके बाद 1784 में महादजी सिंधिया ने इसे वापस हासिल किया. 1804 और 1844 के बीच इस किले पर अंग्रेजों और सिंधिया के बीच नियंत्रण बदलता रहा. हालांकि जनवरी 1844 में महाराजपुर की लड़ाई के बाद यह किला अंततः सिंधिया के कब्जे में आ गया.
शेष अगले भाग में

गुर्जर घार की सीमा

गुर्जर घार भाग 5-
लेखक- इंजी. राम प्रताप सिंह
गुर्जर घार की भौगोलिक स्थिति वर्तमान का आगरा , मुरैना ,गोहद, ग्वालियर, श्योपुर, सबलगढ़ ,धौलपुर, प्राचीन पवाया, प्राचीन कुन्तलपुर, प्राचीन सिहोनिया,पूर्व  भड़ानक राज्य की सरहद,  फतेहाबाद ,करकोली आदि ये गुर्जर घार के हिस्से थे जिसमें  बारे में ये कहना है कि चम्बल नदी गुर्जर घार को बांटती थी जिसमे विभिन्न नदियां हैं वर्तमान फतेहाबाद तथा फिरोजाबाद तहसील में यमुना के दोनों तरफ लगभग गुर्जरों के 60 गाँव हैं, तथा स्थानीय बोलचाल में इस 60 गाँव के क्षेत्र को गूजरघार कहा जाता हैं, जिसका अर्थ हैं - गूजरों का घर|फतेहाबाद कस्बे के पश्चिम में भरापुर गूजराघार का पहला गाँव हैं, इसके पूर्व में यमुना किनारे तक करीब 21 गाँव हैं तथा यमुना पार फिरोजाबाद तहसील में  करीब 38 गाँव गुर्जरों के हैं|
 फतेहबाद तथा फिरोजाबाद की ताल्लुकेदार होने के नाते ये सभी गाँव चौधरी लक्ष्मण सिंह की ताल्लुकेदारी में आते थे जिनकी रियासत का प्रारम्भ गुर्जर घार से होता था तथा करकोली के जमींदार चौधरी फतेह सिंह की जमींदारी आती थी।

गुर्जर घार हुण गुर्जर

गुर्जर_घार भाग 6-. गुर्जर घार हुण गुर्जरों की सत्ता
लेखक -इंजी. राम प्रताप सिंह
गुर्जर , हूण राजवंश को गुर्जर राजवंश की ही सत्ता के रूप में जाना जाता है इस मत के अनुसार विदित सभी इतिहासकारों ने एक मत जबाब दिए जिसके अनुसार हुण गुर्जर थे , बुहलर, होर्नले, वी. ए. स्मिथ, विलियम क्रुक आदि इतिहासकारो ने गुर्जरों को श्वेत हूणों से सम्बंधित माना हैं|  कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों की उत्पत्ति श्वेत हूणों की खज़र शाखा से बताते हैं| भारत में आज भी ‘हूण’ गुर्जरों का एक प्रमुख गोत्र हैं जिसकी आबादी अनेक प्रदेशो में हैं| मिहिरकुल तोरमाण के सभी विजय अभियानों हमेशा उसके साथ रहता था। उसके शासन काल के पंद्रहवे वर्ष का एक अभिलेख ग्वालियर एक सूर्य मंदिर से प्राप्त हुआ हैं| इस प्रकार हूणों ने मालवा इलाके में अपनी स्थति मज़बूत कर ली थी| उसने उत्तर भारत की विजय को पूर्ण किया और गुप्तो सी भी नजराना वसूल किया| मिहिरकुल ने पंजाब स्थित स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया|मिहिकुल हूण एक कट्टर शैव था। उसने अपने शासन काल में हजारों शिव मंदिर बनवाये| मंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान स्थाणु (शिव) के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सर नहीं झुकाया था। मिहिरकुल ने ग्वालियर अभिलेख में भी अपने को शिव भक्त कहा हैं| मिहिरकुल के सिक्कों पर जयतु वृष लिखा हैं जिसका अर्थ हैं- जय नंदी| वृष शिव कि सवारी हैं जिसका मिथकीय नाम नंदी हैं| जैन ग्रन्थ कुवयमाल के अनुसार तोरमाण चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित पवैय्या  नगरी से भारत पर शासन करता था| यह पवैय्या नगरी ग्वालियर के पास स्थित थी| जिसमे मिहिर गुल के ग्वालियर प्रस्सति अभिलेख में समस्त विवरण १. [*][*ज](य)ति जलदवालध्वान्तम् उत्सारयन् स्वैःकिरणनिवहजालैर् व्योम विद्योतयद्भिःउ[*दय-गिरितटाग्रं] मण्डय{+न्} यस्तुरंगैःचकितगमनखेदभ्रान्तचंचत्सटान्तैः। उदयगिरि

२. [⏑--](ग्र)स्तचक्रो र्त्तिहर्त्ताभुवनभवनदीपः शर्व्वरीनाशहेतुःतपितकनकवर्ण्णैर् अंशुभिf पंकजानामभिनवरमणीयं यो (वि)धत्ते स वो व्याट्।श्रीतोरमाण इति यः प्रथितो

३. [*?भू-च](?क्र)पः प्रभूतगुणःसत्यप्रदानशौर्याद् येन मही न्यायत(शा)स्तातस्योदितकुलकीर्त्तेः पुत्रो तुलविक्रमः पतिः पृथ्व्याःमिहिरकुलेति ख्यातो भंगो यः पशुपति(म् अ)[आर्रयार्रय्

४. [*तस्मिन् रा]जनि शासति पृथ्वीं पृथुविमललोचने र्त्तिहरेअभिवर्द्धमानराज्ये पंचदशाब्दे नृपवृषस्य।शशिरश्मिहासविकसितकुमुदोत्पलगन्धशीतलामोदेकार्त्तिकमासे प्राप्त गगन

५. [*?पतौ] निर्मले भाति।द्विजगणमुख्यैर् अभिसंस्तुते च पुण्याहनादघोषेणतिथिनक्षत्रमुहूर्त्ते संप्राप्ते सुप्रशस्तद्(इ)ने।मातृतुलस्य तु पौत्रः पुत्रश् च तथैव मातृदासस्यनाम्ना च मातृचेतः पर्व्व-

६. [*त][-⏑][*?पु](र)वास्(त्)अव्(य्)अःनानाधातुविचित्रे गोपाह्वयनाम्नि भूधरे रम्येकारितवान् शैलमयं भानोः प्रासादवरमुख्यं।पुण्याभिवृद्धिहेतोर् म्मातापित्रोस् तथात्मनश् चैववसता च गिरिवरे स्मि राज्ञः

७. [...](?पा)देनये कारयन्ति भानोश् चन्द्रांशुसमप्रभं गृहप्रवरंतेषां वासः स्वर्ग्गे यावत्कल्पक्षयो भवति॥भक्त्या रवेर् व्विरचितं सद्धर्म्मख्यापनं सुकीर्त्तिमयंनाम्ना च केशवेति प्रथितेन च{-।}

८. [...](?दि)त्येन॥यावच्छर्व्वजटाकलापगहने विद्योतते चन्द्रमादिव्यस्त्रीचरणैर् व्विभूषिततटो यावच् च मेरुर् नगःयावच् चोरसि नीलनीरदनिभे विष्णुर् व्विभर्त्य् उज्वलांश्रीं{-स्} तावद् गिरिमूर्ध्नि तिष्ठति

९. [*?शिला-प्रा]सादमुख्यो रमे॥ ग्वालियर क्षेत्र में हूणों का आधिपत्य था| हूण सम्राट मिहिरकुल के शासन काल के पंद्रहवे वर्ष का एक अभिलेखग्वालियर के पास से एक सूर्य मंदिर से प्राप्त हुआ हैं| ग्वालियर जिले की डबरा तहसील में भारस हूण गुर्जरों का प्रमुख गाँव हैं| आज भी चंबल संभागग्वालियर तथा इसके समीपवर्ती जिलो के गुर्जर बाहुल्य अनेक गाँवो में हूण गुर्जरों की बिखरी  आबादी हैं| ग्वालियर की डबरा तहसील में भारस हूण गुर्जरों का मुख्य गाँव हैं| भरास के पास ही चपराना गुर्जरों का बडेरा गाँव हैं| दोनों गोंवो के लोग पग-पलटा भाई माने जाते हैं तथा आपस में शादी नहीं करते| मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले में नरवर के पास डोंगरी, और टिकटोली हूण गुर्जरों का प्रसिद्ध गाँव हैं|  शेष अगले भाग में जारी............।

गुर्जर सम्राट मिहिर भोज

सदी के गुमनाम महानायक मिहिर भोज !

सदी के गुमनाम महानायक मिहिर भोज !
मिहिर भोज ,महाराष्ट्र गुर्जर समाज
लेखिका -ज्योति नरेंद्र पाटिल समाजसेवी
एक हज़ार साल आर्यव्रत पर राज करने बाले गुर्जरों में एक से बढ़कर एक राजा महाराजा क्रांतिकारी हुए हैं , जिन्होंने खून पसीने से देश दुनिया की भूमि को रहने योग्य बनाया था जिसमे बीहड़ उबड़ खाबड़ जमीनों को उपयोगी बनाने के लिए गुर्जरों ने पूरे एक हज़ार साल के लगभग राज किया जिनमें हर एक गोत्र के गुर्जरों का अत्यधिक योगदान रहा है शक कुसान हुण मोरी गुर्जर प्रतिहार चालुक्य भड़ाना खटाना घुरैया और बैसला आदि ने राज किया है जिन्होंने भारत को ज्ञान तथा शिक्षा में सात वे आसमान पर पहुँचा दिया था ,गुर्जरों के हर एक राजवंश में शिक्षा को काफी जोर दिया तथा अंधकार को दूर करने में आडम्बर को मिटाने ने के लिए काफी हद तक सफलता शक और कुशाण को हासिल भी रही थी गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का नाम भारत ही नही आर्यवृत के महान सम्मानों में गिना जाता है इसके अतिरिक्त प्रभास ,परमेश्वर, श्रीमदादिवरह उपाधियां से गुर्जर सम्राट की सोभा भारत के चक्रबर्ती सम्राट अशोक महान , कनिष्क महान गुर्जर के बाद गुर्जर  सम्राट मिहिर भोज का नाम आता है ,गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना नागभट्ट नामक एक सामन्त ने 725 ई. में की थी। उसने राम के भाई लक्ष्मण को अपना पूर्वज बताते हुए अपने वंश को सूर्यवंश की शाखा सिद्ध किया। अधिकतर गुर्जर सूर्यवंश का होना सिद्द करते है तथा गुर्जरो के शिलालेखो पर अंकित सूर्यदेव की कलाकृर्तिया भी इनके सूर्यवंशी होने की पुष्टि करती है।आज भी राजस्थान में गुर्जर सम्मान से मिहिर कहे जाते हैं, जिसका अर्थ सूर्य होता है गुर्जर सम्राट मिहिर भोज से अरब , पाल ,कश्मीर के वर्मन वंशी आदि थर-थर कांपते थे !
मिहिर भोज के पहले राज्य स्थिति-
वत्सराज का उत्तराधिकारी नागभट्ट द्वितीय (800-834) भी अपने कुल का एक प्रतापी सम्राट् था। नागभट्ट को अपने सैन्य-जीवन के प्रारम्भ में कई सफलतायें प्राप्त हुई। नागभट्ट-द्वितीय को इस बात के लिए श्रेय प्रदान किया जाता है कि उसने उत्तर में सिन्ध से लेकर दक्षिण में आन्ध्र और पश्चिम में अनर्त (काठियावाड़ में एक स्थान) से लेकर पूर्व में बंगाल की सीमाओं तक अपने राज्य का विस्तार किया। यद्यपि राष्ट्रकूट वंश के राजा गोविन्द तृतीय ने नागभट्ट-द्वितीय को पराजित कर दिया तथापि कन्नौज पर प्रतिहार वंश का अधिकार बना रहा। नागभट्ट-द्वितीय को गोविन्द-तृतीय द्वारा पराजय सहन करने से कुछ हानि अवश्य उठानी पडी किन्तु कन्नौज को उसने अपने हाथ से नहीं जाने दिया और इसे अपनी राजधानी बनाया। नागभट्ट-द्वितीय का उत्तराधिकारी रामभद्र था (834-840), जिसके शासन-काल में कोई महत्त्वपूर्ण घटना घटित नहीं हुई।
रामभद्र के समय गुर्जर राजाओं से गुजरात,मुंगेर , भोजपुर ,पंजाब,आदि राज्य लगभग लगभग नाम मात्र के अधीन थे जिसमें विद्रोह के स्वर गूंज रहे थे

मिहिर भोज का साम्राज्य-
गुर्जर साम्राज्य 

मिहिर भोज के समय गुर्जर वंश का चौमुखी विकाश हुआ था जिसमे गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के राज्य शीमा मुल्तान ,सिंध से लेकर बंगाल तक जा लगी और पंजाब और कश्मीर की सरहद से लेके महाराष्ट्र तक जा चुकी थी इसके अलावा मुंगेर, आसाम , उड़ीसा,उत्तराखण्ड आदि इनके साम्राज्य का हिस्सा बन गए थे ।

मिहिर भोज की उपाधियां-गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के मुख्य मुख्य अभिलेखों में ग्वालियर, पेहोवा, दौलतपुर, अभिलेख हैं जिनमे मिहिर भोज के नाम के साथ मिहिर,भोज देव, प्रभाश, आदिवराह, परमेश्वर, आदि महान महान उपाधियों से बिभुसित किया गया था ।

मिहिर भोज का पारिवारिक विवरण-

1-नागभट्ट (730-760 ईसवी),
2-ककुस्थ और देवशक्ति (760-778इस्वी) ,
3-वत्सराज (778-800इस्वी ) ,
4-नागभट्ट 2 (800-833इस्वी ) ,
5-रामभद्र (833-835इस्वी ) ,
6- सम्राट मिहिर भोज(835-889 इस्वी)
7-सम्राट महेन्द्रपाल प्रथम(885-910इस्वी) ,
8- सम्राट महिपाल (910-930इस्वी),
9-भोज द्वतीय (930-931),
10-विनायकपाल (931-944इस्वी),
11-महेन्द्रपाल द्वतीय (944-947ई.),
12-देवपाल (947-955इस्वी),
13-विजयपाल(955-985इस्वी),
14-राज्यपाल देव गुर्जर(985-1019),
15-त्रिलोचलपाल गुर्जर(1019-1030इस्वी),
16-यशपाल गुर्जर (1030-1040इस्वी ),  कुल 300 साल आर्यवृत पर गुर्जर वंश के इस परिवार ने राज किया था

मिहिर भोज के सामन्त-

1-चाटसु के गुहिल,
2-शाकंभरी के चाहमान ,
3-मारवाड़ के प्रतिहार ,
4-प्रताप गढ़ के चौहमान ,
5-सौराष्ट्र के चालुक्य ,
6-बुंदेलखंड के चंदेल गुर्जर ,

मिहिर भोज का शासन काल-भोज ने सर्वप्रथम कन्नौज राज्य की व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त किया, प्रजा पर अत्याचार करने वाले सामंतों और रिश्वत खाने वाले कामचोर कर्मचारियों को कठोर रूप से दण्डित किया। व्यापार और कृषि कार्य को इतनी सुविधाएं प्रदान की गई कि सारा साम्राज्य धनधान्य से लहलहा उठा। मिहिरभोज ने गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य को धन, वैभव से चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया। अपने उत्कर्ष काल में इन्हे गुर्जर सम्राट मिहिर भोज की उपाधि मिली थी। अनेक काव्यों एवं इतिहास में उसे गुर्जर सम्राट भोज, भोजराज, वाराहवतार, परम भट्टारक, महाराजाधिराज आदि विशेषणों से वर्णित किया गया है।विश्व की सुगठित और विशालतम सेना भोज की थी-इसमें 8,00,000 से  ज्यादा पैदल करीब 90,000 घुडसवार,, हजारों हाथी और हजारों रथ थे।915 ईस्वीं में भारत आए बगदाद के इतिहासकार अल- मसूदी ने अपनी किताब मरूजुल महान मेें भी मिहिर भोज की 36 लाख सेनिको की पराक्रमी सेना के बारे में लिखा है। इनकी राजशाही का निशान “वराह” था और मुस्लिम आक्रमणकारियों के मन में इतनी भय थी कि वे वराह यानि सूअर से नफरत करते थे। मिहिर भोज की सेना में सभी वर्ग एवं जातियों के लोगो ने राष्ट्र की रक्षा के लिए हथियार उठाये और इस्लामिक आक्रान्ताओं से लड़ाईयाँ लड़ी।मिहिरभोज के राज्य में सोना और चांदी सड़कों पर विखरा था-किन्तु चोरी-डकैती का भय किसी को नहीं था। जरा हर्षवर्धन के राज्यकाल से तुलना करिए। हर्षवर्धन के राज्य में लोग घरों में ताले नहीं लगाते थे,पर मिहिर भोज के राज्य में खुली जगहों में भी चोरी की आशंका नहीं रहती थी। मिहिर भोज की सेना में हर जाति वर्ग का इंसान सेना में लड़ने जाता था जिसमे तमोली, तेली, माला बुनकर, लुहार, आदि सभी भाग लेते थे भोज के राज कॉज में अरब यात्री ने भोज के राज्य का वर्णन में लिखता है कि "इस राजा के राज्य में सुकून से जीते थे और अपने घरों में ताला नही लगाते थे" मिहिर भोज ने अपनी सेना को पहले से और बेहत्तर बनाने के लिए सेना की टुकड़ियों को अलग अलग दिशाओं में राष्ट्रकूट से लड़ने के लिए चुंगी मांडू पुर बना दी थी , पाल से लड़ने के लिए मुंगेर सरहद पर, कश्मीर के वर्तमान वंसज से लड़ने के लिए पेहोवा में बना दी थी , अरब के तरफ से होने बाले हमलों की मिहिर भोज अपनी अगुवाई में खुद अंजाम देते थे इनके बारे में कहा गया था कि ये "अरब यात्री सुलेमान और मसूदी ने अपने यात्रा विवरण में लिखा है ’जिनका नाम बराह (मिहिर भोज) है। उसके राज्य में चोर डाकू का भय कतई नहीं है। उसकी राजधानी कन्नौज भारत का प्रमुख नगर है जिसमें 7 किले और दस हजार मंदिर है। आदि बराह का (विष्णु) का अवतार माना जाता है। यह इसलाम धर्म और अरबों का सबसे बड़ा शत्रु है"

अरबों के साथ संघर्ष -मिहिर भोज के राजतिलक के बाद अरबों के ऊपर अंधकार के काले बादल छगये थे जिसके चलते राज्य के विरोध अरब आक्रमण कारी अरमान ने दुगनी फ़ौज का उपयोग किया 839 इस्वी में और सिंध में बुरी तरह उसको पराजित होकर भागना पड़ा  अरब के खलीफा मौतसिम वासिक, मुत्वक्कल, मुन्तशिर, मौतमिदादी थे। अरब के खलीफा ने इमरान बिन मूसा को सिन्ध के उस इलाके पर शासक नियुक्त किया था। जिस पर अरबों का अधिकार रह गया था लेकिन इनकी मोत के बाद अरमान गद्दी पर आया और गुर्जर के हातो पराजित होकर सिंध से बेदखल होकर भाग गया मिहिर भोज ने इसी प्रकार 840 से 885 तक इनको 20 बार युद्ध के मैदान में बुरी तरह पराजित कर के अपने राज्य तथा राज्य के लोगों  को बचाया नारायण का अवतार की तरह ।

पाल वांशियों के साथ संघर्ष - पाल वंश में धर्म पाल ,नारायण पाल ,देबपाल में साथ मिहिर भोज के काफी युद्ध हुए देबपाल तथा नारायण पाल की सत्ता पूर्ण खत्म करके बंगाल उड़ीसा को अपने मे मिला लिया था ।

राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष- अमोघवर्ष ,तथा उसके पुत्र के साथ निरंतर युद्ध उज्जैन तथा कन्नौज के लिए किए जा रहे थे कृष्ण 2 को युद्ध से हरा कन्नौज से बेदखल कर दिया था इसके इससे पहले नर्मदा तट पर हुए मिहिर भोज और अमोघवर्ष के साथ हुए युद्ध अनिर्णायक रहे थे ।


मिहिर भोज के सिक्के- 
श्रीमद आदिवराह 

मिहिर भोज के कन्नौज विजय के बाद राजतिलक में निसानी के तौर पर श्रीमद आदिवराह नामक 56 ग्रेन के सिक्के को चलाया था जो उस जमाने का उत्तम टकसाल थी जिसका उपयोग सैनिक वेतन ,बाजार व्यवस्ता आदि के लिए किया जाता था 


मिहिर भोज की कला -
तेली का मंदिर ग्वालियर
मिहिर भोज ने विंष्णु ,शिव,के मंदिर सबसे ज्यादा बन बाए थे जिनमें ,बटेस्वर मुरैना,तेलीका मन्दिर, सास बहू का मंदिर ,
चतुर्भुज मंदिर, जयपुर दोसा की बाबड़ी, आदि मंदिरों का निर्माण कराया था ।मिहिर भोज ने भारत भूमि के उत्तम स्थान आर्यवृत पर लगभग 55साल राज किया तथा गुर्जर प्रतिहार के इस वंश ने भारत भूमि का भोग 300 साल तक किया जिसमें भारत को सोने की चिड़िया बना दिया गया था ।
मिहिर भोज अपने दरबार मे एक एक श्लोक पर लाख लाख मुद्रा भेंट करता था राज्य की विशालता आप नाप सकते हैं कि मिहिर भोज का राज्य किस शिखर पर था आज उस महान सम्राट की जयंती तथा अवतरण दिवश है जिसपे कम से कम हम उनके आदर्शों पर चल कर हम भी जीवन की कठिनता को पार करके अपना कर्तिमान कायम कर सकते हैं जिसके लिए हिम्मत ,संयम आदि की जरूरत होती है ।
हर हर भोज
घर घर भोज
जय कनिष्क जय मिहिरगुल जय भोज ।

बलराम गुर्जर राजगढ़

 गुर्जर गौरव पूर्व विधायक श्री बलराम गुर्जर जी को जन्म दिन की लाखों बधाई भगवान उनको लंबी उम्र दे इनके पुत्र श्री जसवंत सिंह जी सामाजिकता के दायरे में पूर्व विधायक श्री बलराम जी गायरी गुर्जर ओर लोर गुर्जरों का एरिया है जिसके आस पास काफी ज्यादा मात्रा में गुर्जर हैं 
पूर्व विधायक श्री बलराम 
आज 18/11/18 को बलराम जी का जन्म दिन है । पूर्व विधायक श्री बलराम जी हर वर्ष राजगढ़ और ब्यावरा के गुर्जरों की एक यात्रा निकलते है जिसको बलराम जी या उनके पुत्र वर्तमान राज्यमंत्री श्री जसवंत सिंह गुर्जर देव भगवान की शोभा यात्रा में शामिल होते हैं , इसके साथ ही समाज की आवाज बनते हैं, पिता और पुत्र इसे अतिरिक्त बालराम जी पूर्व विधयक भी राजगढ़ से बने थे औरा उनके पुत्र जिला पंचायत प्रधान हैं ।।

Saturday, 17 November 2018

गूजरी भाषा का इतिहाश

गुजरी भाषा व्याखया -
लेखक -इंजी. राम प्रताप सिंह
कुषाणोँ ने बैक्ट्रीया पर अधिकार किया उसे समय ऊधर ग्रीक सभ्यता तथा लिपी ज्यादा मात्रा मे उपस्थित थी क्योंकि की ग्रीकों के अधीन यह जगह काफी समय सै थी जब कुषाणोँ ने अधिकार किया तो इनकी भाषा की जगह पर आर्य भाषा को लाये जबकी प्रारम्भिक समय मे ईधर खरोष्टी भाषा ही ग्रीक  लिपी मै चलती थी ज्यादा जिसके कुछ समय बाद यह बख्त्री भाषा का उपयोग होने लगा जंहा तक है रोबोटक अभिलेक के अनुसार इनके नामो के वर्णन मे "ओ" को ज्यादा महत्वदिया गया है जिसमे हम इस बात को देखते हैं की यह लोग बोलते कैसे थे उस समय Ozeno (Ujjain), Kozambo (Kausambi), Zagedo (Saketa), Palabotro (Pataliputra) and Ziri-Tambo (Janjgir(ship)-Champa). तथा कनिंघम के अनुसार जिस सिक्के पर कोर्स लिखा है अगर उसे गोर्स (गोर्सी) पढना चाहिये तो kus(a^-)na तो k=G, Gus(a^-)NA इसी क्रम मै आगे इनके सिक्कों पर तथा बी.ऐन.मुख़र्जी के अनुसारKomaro (Kumara) and called Maaseno (Mahasena) and called Bizago (Visakha), Narasao और Miro (Mihara). आदि शब्द इनके सिक्कों पर मिलते हैं जिनके अनुसार वासुदेव को वाजुदेव पढना चाहिये तथा स/श की जगह पर ये लोग "ज" का उपयोग करते थे अब हम कुसान/कुषान पर ध्यान देते हैं "क" को जब कनिंघम ने "ग" बताया है तब आगे "गुजान"(Gujan) जो की गूजर शब्द कि ही अप्रभंस है Komaro (Kumara) and called Maaseno (Mahasena) and called Bizago (Visakha), Narasao और Miro (Mihara). आदि शब्द इनके सिक्कों पर मिलते हैं जिनके अनुसार वासुदेव को वाजुदेव पढना चाहिये तथा स/श की जगह पर ये लोग "ज" का उपयोग करते थे अब हम कुसान/कुषान पर ध्यान देते हैं "क" को जब कनिंघम ने "ग" बताया है तब आगे "गुजान"(Gujan) जो की गूजर शब्द कि ही अप्रभंस है।जी. ए. ग्रीयरसन ने लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, खंड IX  भाग IV में गूजरी भाषा का का विस्तृत वर्णन किया हैं| गूजरों की भाषा गूजरी के बारे मे लिखने बाले सर डेन्जिल इबटसन ने कास्ट एन्ड ट्राइब्स आफ दी पिपुल (पंजाब कास्टस) 1883’’ इनकी भाषा पंजाबी तथा पश्तो सै बिल्कुल भिन्न हिन्दी है जो नरम जुबानी है "इसी भाषा को पूंछ ऐवटाबाद मे बोली जाती है जिसको नरम भाषा गूजरी कहते हैं यही भाषा अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान के सीमा प्रान्त इलाकों मे बहुतायात मे बोली जाती है यह क्षेत्र गुर्जरो के ही अधीन रहा है चाहे वो कसाणा /कुषाण हों या उनके वशंज खटाना या प्रतिहार हों लेकिन इतिहासकारों के अनुसार हूंणों के आगमन के समय इस भाषा का चलन कहा गया है जबकी इसका सम्बन्ध तो बख्त्री सै मिलते हैं | जाहीर  सी बात हे की कुसन वंश के बाद भारत में किसी भी  नयी जाती का आगमन नहीं हुआ हे जिस ने खुद की कोई संस्कृति का विकाश किया हो लेकिन वो सिरफ कुसन वंश ने किया था  जिस का जीता जगता सबूत उनकी भाषा तथा उनके अभिलेख मूर्तिकला आदि भारत में ज़िंदा हैं जिस से इस  का पता लगता हे की यह राजवंश  अपने समय में तररक्कि के किस पथ पे गमन कर रहा था लेकिन गुजरी भाषा के जो प्रमाड कुषाणों के समय में मिलते हैं वो किसी भी समय में नहीं मिलते हैं कुसनो के बाद सबसे बड़ा माइग्रेशन हूणों  का हुआ जिन की कोई भासा नहीं थी अगर हूडों की कोई भाषा होती तो माना जा सकता था की कुसन काल की भासा का इनके साथ कुछ मिलावट होसकती थी मगर ऐसा नहीं हुआ आज भी हम देखें तो कुसन और हूँड़ों के राज करने की जो रियासतें थीं उनमे मूलरूप से गुजरी भाषा का ही चलना हे उत्तरप्रदेश के गुर्जर बहुल एरिया में आज  भी राम राम को रोम रोम बोलै जाता हे,ओ को कॉमन कर के बोलै जाता हे जब आज कुषाण राजवंश को ख़त्म हुए    २००० वर्ष हो चुके हैं लेकिन हमारे लोगों की आज भी वोही भासा हे |  वैसे ही गूजरी बोली  में राम को रोम, पानी को पोनी, गाम को गोम, गया को गयो आदि बोला जाता हैं|इसी  भासा में कुसानो के सिक्कों   उन्हें बाख्त्री में कोशानो लिखा हैं और वर्तमान में गूजरी में  भी ओ को अतिरिक्त जोड़ के  कोसानो बोला जाता हौं| अतः कुषाणों द्वारा प्रयुक्त बाख्त्री भाषा और आधुनिक गूजरी भाषा की समानता भी कुषाणों और गूजरों की एकता को प्रमाणित करती हैं| ​
गुर्जरों की हमेशा ही अपनी विशिष्ट भाषा रही हैं| गूजरी भाषा के अस्तित्व के प्रमाण सातवी शताब्दी से प्राप्त होने लगते हैं| सातवी शताब्दी में राजस्थान को गुर्जर देश कहते थे, जहाँ गुर्जर अपनी राजधानी भीनमाल से यहाँ शासन करते थे| गुर्जर देश के लोगो की अपनी गुर्जरी भाषा और विशिष्ट संस्कृति थी| इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि आधुनिक गुजराती और राजस्थानी का विकास इसी गुर्जरी अपभ्रंश से हुआ हैं| वर्तमान में जम्मू और काश्मीर के गुर्जरों में यह भाषा शुद्ध रूप में बोली जाती हैं|  जी. ए. ग्रीयरसन ने लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, खंड IX  भाग IV में गूजरी भाषा का का विस्तृत वर्णन किया हैं| इतिहासकारों के अनुसार कुषाण यू ची कबीलो में से एक थे, जिनकी भाषा तोखारी थी| तोखारी भारोपीय समूह की केंटूम वर्ग की भाषा थी| किन्तु बक्ट्रिया में बसने के बाद इन्होने मध्य इरानी समूह की एक भाषा को अपना लिया| इतिहासकारों ने इस भाषा को बाख्त्री भाषा कहा हैं| कुषाणों द्वारा बोले जाने वाली बाख्त्री भाषा और गुर्जरों की गूजरी बोली में खास समानता हैं| कुषाणों द्वारा बाख्त्री भाषा का प्रयोग कनिष्क के रबाटक और अन्य अभिलेखों में किया गया हैं| कुषाणों के सिक्को पर केवल बाख्त्री भाषा का यूनानी लिपि में प्रयोग किया गया हैं| कुषाणों द्वारा प्रयुक्त बाख्त्री भाषा में गूजरी बोली की तरह अधिकांश शब्दों में विशेषकर उनके अंत में ओ का उच्चारण होता हैं| जैसे बाख्त्री में उमा को ओमो, कुमार को कोमारो ओर मिहिर को मीरो लिखा गया हैं, वैसे ही गूजरी बोली  में राम को रोम, पानी को पोनी, गाम को गोम, गया को गयो आदि बोला जाता हैं| इसीलिए कुषाणों के सिक्को पर उन्हें बाख्त्री में कोशानो लिखा हैं और वर्तमान में गूजरी में कोसानो बोला जाता हौं| अतः कुषाणों द्वारा प्रयुक्त बाख्त्री भाषा और आधुनिक गूजरी भाषा की समानता भी कुषाणों और गूजरों की एकता को प्रमाणित करती हैं| हालाकि बाख्त्री और गूजरी की समानता पर और अधिक शोध कार्य किये जाने की आवशकता हैं, जो कुषाण-गूजर संबंधो पर और अधिक प्रकाश डाल सकता हैं|
Organizations working for Gojri:
Tribal Research and Cultural Foundation PoonchGurjar Desh Charitable Trust JammuAnjmun Gujjran SrinagarJammu and Kashmir Anjuman Taraqi Gojri Adab RajouriBhartya Gurjar Pareshad Uatter Pradesh.Anjuman Gojri Zuban-o-Adab Tral KashmirOrganisation of Himalyan Gujjars PoonchAdbi Sangat Wangat KashmirAdbi Majlis Gojri JammuSarwari Memorial Gojri Society JammuGojri Dramatic Club JammuGujjar Writers Association Uri Baramulla.Gojri Anjumun BadgamGujjar Manch KathuaBazm-i-Adab Kalakote RajouriGojri Development Center Karnah KupwaraHalqa.e.Gojari Adab GilgitBazm-e-Gojri, Pakistan (Rawalpindi/islamabad)

महाराष्ट्र गुर्जर वंश

महराष्ट्र में गुर्जर भूमिका 
लेखक- इंजी. राम प्रताप सिंह
गुर्जर गौरव महान पराक्रमी सर सेनापति प्रताप राव गुर्जर स्मारक 
महाराष्ट्र एक गुर्जरों का प्रमुख गढ़ है ये हमारे समाज की एजुकेशन का पिछड़ापन है कि अपने लोगो को भाइयों को पहचान नही पा रहे हैं और आपसी भाईचारे की जगह ऊंच नीच का भेद भरके बैठे हैं । इसको मिटाने के लिए हमे सबसे आगे आना पड़ेगा हमने प्रथम इस्वी से लेकर आज तक अपना खून बहाया है   हमने अरब से हुए हैं हमले या फिर अंग्रेजों के या फिर मुग़लों के हमले को मुह तोड़ जबाब दिया था, महारष्ट्र के विशाल साम्राज्य को स्थापित करने के लिए भी खून बहाया है जिसको हम जग जाहीर वीर सर सेनापति प्रताप राव गुर्जर के नामसे जानते हैं , गुर्जरों में असंख्य  कुल बन गए हैं जिसने हमे आपस मे  बांट के रखा है हमारी विशाल वीर जाती का इतिहास भारत ही नही मध्य एशिया , उज्बेकिस्तान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान को ग़ुलाम बनाने बाले महान कुषाण  चक्रबर्ती सम्राट कनिष्क ने भी महराष्ट्र पे सासन किया गुज्जरी भासा को उद्गम तथा उपयोग को बढ़ावा दिया जिनके वंश ने भारत पे 350 साल राज किया तथा राजयस्थन ,मध्य प्रदेस जम्मू ,कश्मीर पाकिस्तान अफगानिस्तान, में आज भी उनके वंश से निकले गोत्र के लोग रहते हैं जिनमे , दोरात मुंडन, मंदार, अधाना, अन्नान, बर्गटदेवड़ा/दीवड़ा: गुर्जरों की इस खाप के गाँव गंगा जमुना के ऊपरी दोआब के मुज़फ्फरनगर क्षेत्र में हैं| कैम्पबेल ने भीनमाल नामक अपने लेख में देवड़ा को कुषाण सम्राट कनिष्क की देवपुत्र उपाधि से जोड़ा हैं|
गुर्जरी माता जानकी बाई
दीपे/दापा: गुर्जरों की इस खाप की आबादी कल्शान और देवड़ा खाप के साथ ही मिलती हैं तथा तीनो खाप अपने को एक ही मानती हैं| शादी-ब्याह में खाप के बाहर करने के नियम का पालन करते वक्त तीनो आपस में विवाह भी नहीं करते हैं और आपस में भाई माने जाते हैं| संभवतः अन्य दोनों की तरह इनका सम्बन्ध भी कुषाण परिसंघ से हैं, इसके बाद भारत वर्ष में गुर्जरों की सत्ता हुण वंश के रूप में मिहिर गुल हुण और तोरमाण हुण के शासन के अधीन आई जिनके गोत्र के लोग आज महराष्ट्र से लेके जम्मू उत्तर प्रदेश तक गुर्जरों में मिलते हैं, जिनसे ही निकले दोड़े गुर्जरों हैं जिनमे  हूण गोत्र हैं| खानदेश गजेटियर के अनुसार दोड़े गुर्जरों के 41 कुल हैं| इनमे से एक अखिलगढ़ के हूण हैं|इसके बाद भारत के महान वंश के कुल आये जिनको इतिहाश में गुर्जर प्रतिहार के नाम से जाना गया जिन्होंने अरबों को 300 साल तक हराये हिंदुत्व की कल्पना करने बाले लोग आज भारत मे ही नही होते अगर गुर्जर प्रतिहार न होते आज भारत भी मुस्लिम देश हो जाता इस बात को हम नही पत्थर चीख चीख के बोलते हैं राज्यस्थान के जिसमे रेगिस्तान में हमारे पूर्वजों ने अपने खून से रेत को लाल किया और देश को संभाल के बचाया था जिनको आज इतिहाश में लगा तार कहीं कहीं  इतिहाशकर प्रयत्न किए जाते हैं ये हमारे लोगों की अज्ञानता है कि उनको अपने कुल वंश का कुछ समझ नही आता जे महान चक्रबर्ती सम्राट मिहिर भोज को जानना चाहिए हमारे लोगों को  जिन्होंने भारत पर अखंड 55साल राज किया था लेकिन आज हमारी हालात सबके सामने है ।।इसके अतिरिक्त हिंदी भाषी मध्य प्रदेश के इन्दोर संभाग में भी लेवा गूजर मिलते हैं| होशंगाबाद में इन्हें मून्डले या रेवे गूजर कहते हैं| खानदेश गजेटियर के अनुसार रेवा गूजर और गुजरात के लेवा गूजर एक ही हैं इसके साथ ही
 श्री पी के अन्ना पाटिल साहब 
 प्रताप राव का वास्तविक नाम कड़तो जी गूजर था, प्रताप राव की उपाधि उसे शिवाजी ने सरेनौबत (प्रधान सेनापति) का पद प्रदान करते समय दी थी। प्रताप का अर्थ होता है- वीर। एक अन्य मत के अनुसार यह उपाधि शिवाजी ने उसे मिर्जा राजा जय सिंह के विरूद्ध युद्ध में दिखाई गई वीरता के कारण सम्मान में दी थी। प्रताप राव गूजर ने अपने सैनिक जीवन का प्रारम्भ शिवाजी की फौज में एक मामूली गुप्तचर के रूप में किया था। एक बार शिवाजी वेश बदल कर सीमा पार करने लगे, तो प्रताप राव ने उन्हें ललकार कर रोक लिया, शिवाजी ने उसकी परीक्षा लेने के लिए भांति-भांति के प्रलोभन दिये, परन्तु प्रताप राव टस से मस नहीं हुआ। शिवाजी प्रताप राव की ईमानदारी, और कर्तव्य परायणता से बेहद प्रसन्न हुए। अपने गुणों और शौर्य सेवाओं के फलस्वरूप सफलता की सीढ़ी चढ़ता गया शीघ्र ही राजगढ़ छावनी का सूबेदार बन गया। 6 सैनिकों ने प्रताप राव का अनुसरण किया, वे बहुत साहस और वीरता से लड़े परन्तु शत्रु की विशाल सेना के मुकाबले लड़ते हुए सात वीर क्या कर सकते थे। अंतत: वे सभी वीरगति को प्राप्त हो गये। प्रताप राव की मृत्यु का सबसे अधिक दु:ख शिवाजी को हुआ। शिवाजी ने महसूस किया कि उन्होंने अपने बहादुर और वि’वसनीय सेनापति को खो दिया। प्रताप राव के परिवार से सदा के लिये नाता बनाए रखने के लिए उन्होंने अपने पुत्र राजाराम का विवाह उसकी पुत्री के साथ कर दिया। प्रताप राव गूजर और उसके छह साथियों के बलिदान की यह घटना मराठा इतिहास की सबसे वीरतापूर्ण घटनाओं में से एक है। प्रतापराव और उसके साथियों इस दुस्साहिक बलिदान पर प्रसिद्ध कवि कुसुमग राज ने ‘वीदात मराठे वीर दुआदले सात’ नामक कविता लिखी है जिसे प्रसिद्ध पा’र्व गायिका लता मंगेश्वर ने गाया है। प्रताप राव गूजर के बलिदान स्थल नैसरी, कोल्हापुर, महाराष्ट्र में उनकी याद में एक स्मारक भी बना हुआ है।  शिवाजी के कार्यकाल की सबसे भीषण और आमने-सामने की लड़ाई में मुगलों को सलहेरी के युद्ध में बुरी तरह परास्त करने का श्रेय भी प्रताप राव गूजर को ही प्राप्त है। हिन्दी स्वराज्य की खातिर उसने अपने प्राणों की बाजी लगाकर मुगल सेनापति जय सिंह को उसी के शिविर में हमला कर मारने का प्रयास किया। प्रताप राव गूजर अपनी अंतिम सांस तक हिन्दवी स्वराज्य के लिए संघर्षरत रहा और शिवाजी के राज्याभिषेक की तारीख 15जून 1674 से मात्र तीन माह दस दिन पहले पांच मार्च 1674 को जैसरी के युद्ध में शहीद हो गया। प्रताप राव गूजर जैसे  वीर, साहसी और देशभक्त बिरले ही होते हैं। वास्तव में वह उस तत्व का बना था जिससे शहीद बनते हैं। हिन्दवी स्वराज्य की राह में उसका बलिदान स्मरणीय तथ्य है।  गुर्जर माता जानकी बाई सहयोगनी तथा मराठा राजवंश में गुर्जरी जानकी बाई और तारा बाई महाराज राजा राम जी की पत्नी थी तारा बाई मराठा राण वंश में एक प्रमुख चेहरा हैं जिनको जाना गया है । इनके अतिरिक्त  जानकी बाई गुर्जरी जो कि सर सेनापति प्रताप राव की पुत्री थी जिसकी शादी राजा राम तथा शिवाजी महाराज के पुत्र से शादी की गई ,  जिनसे जन्मे शिवाजी 2 को राजगद्दी माता तारा बाई ने दिलाई तथा गोद लिया था ।यह रिश्ता है गुर्जर मराठा और कुर्मी का जिसको फिर से एक करना है ।जय माँ तारा बाई जय माँ जानकी बाई की ।।

अफगानिस्तान के गुर्जर कबीले

अफगानिस्तान के गुर्जर कबीले!
लेखक- इंजी.राम प्रताप सिंह
गुर्जर साम्राट कुषाण /कसाना वंशी महराज कनिष्क 
अफगानिस्तान में पहले आर्यों के कबीले आबाद थे और वे बौद्ध धर्म के प्रचार के बाद यह स्थान बौद्धों का गढ़ बन गया। यहां के सभी लोग ध्यान और रहस्य की खोज में लग गए। इधर की जमीन पर अत्यधिक मात्रा में प्रथम दल आर्यों का फिर शक कुसान हुन गुज्जर आकर रहने लगे जिसमे से अधिकतर लोग सूर्य अग्नि चन्द्र की पूजा करते थे ।बुद्ध धर्म मे महायान और हीनयान बन ने के बाद इधर बहुतायत में धार्मिक जीवन मे बदलाव आया ।जो गुज्जर इधर से निकले वो काफी ज्यादा मात्रा में थे शीत प्रदेश की बजह से काफी लोग 3000 साल पहले ही रुक गए जिसमे असंख्य कबिले थे ,आज भी अफगानिस्थान के अंदर 500से ज्यादा स्थानों के नाम गुर्जरों के ऊपर हैं जिनमे गुर्जर नाला ,गुज्जर खान,गुज्जर बाग, गुज्जर घर, आदि स्थान हैं अफगानिस्थान के राष्ट्रगान में भी गुर्जरो का विवरण नश्ल में किया गया है जो उधर ऊपरी दोआब में मौजूद है अफगानिस्तान के राष्ट्रगान का विवरण कुछ इस प्रकार है
"अरबों की और गुज्जरों की,
पामिरियों, नूरिस्तानीयों
ब्राहुइयों की और किज़िलबाशों की,
एमाक्यों और पाशाइयों की भी"
इस्लाम के आगमन के बाद यहां एक नई क्रांति की शुरुआत हुई। बुद्ध के शांति के मार्ग को छोड़कर ये लोग क्रांति के मार्ग पर चल पड़े। शीतयुद्ध के दौरान अफगानिस्तान को तहस-नहस कर दिया गया। यहां की संस्कृति और प्राचीन धर्म के चिह्न मिटा दिए गए। लेकिन धर्म बदलने के बाद भी आज तक ये लोग "ये माना पंथ बदला है मगर पुरखे नही बदले "की कहावत को सच साबित करते हैं क्यों कि आज भी
अफगानिस्तान के गांवों में बच्चों के नाम आपको कनिष्क, आर्यन, वेद ,मिहिर, जयपाल, साही, देबपुत्र आदि नाम  मिलेंगे।दरअसल, अंग्रेजी शासन में पिंडारियों के रूप में जो अंग्रेजों से लड़े, वे विशेषकर पठान  गुज्जर और जाट  ही थे। पठान जाट और गुज्जरों  के समुदाय का ही एक वर्ग है। कुछ लोग इन्हें बनी इसराइलियों का वंशज मानते हैं जो की बेबुनियाद है पठानों में गुज्जरों की सबसे ज्यादा चौहान, कुषाण, हुन आदि की बदली हुई है जिसमे आज भी खटानाओ के राजधानी थी पुरातत्वविदों ने खैबर पख्तूनख्वाह के हुंद गांव में और खुदाई की मांग की है  हुन्द हुन का ही बदला स्वरूप है जिसको आज भी अफगनिस्तान से लेकर भारत तक गुर्जरों का राजवंशी गोत्र है तथा आज भी संख्या बल में ज्यादा है पुरातत्व वेदियों ने माग की ताकि उस समय की सभ्यता को समझा जा सकें। हुंद को हिंदू शाही वंश की राजधानी कहा जाता है। हुंद खैबर पख्तूनख्वाह में सबसे समृद्ध पुरातात्विक स्थल है और कहा जाता है कि सिंकदर महान तक्षशिला को जीतने से पहले हुंद में ही रुका था।  अफगनिस्तान पे पररम्भ से इस्वी पूर्व के लगभग 200साल पहले से गुर्जरों ने राज करना पररम्भ कर दिया था जिसमे कुषाण ,तुअर, खटाने आदि शामिल थे आज भी स्वात घाटी के महराज खटाने वंश के बालिये स्वात के नाम से जाना जाता है ।आजकल हम जिस बगराम हवाई अड्डे का नाम बहुत सुनते हैं, वह कभी कुषाणों की राजधानी था। उसका नाम था कपीसी।

पुले-खुमरी से 16 किमी उत्तर में सुर्ख कोतल नामक जगह में कनिष्क-काल के भव्य खंडहर अब भी देखे जा सकते हैं। इन्हें आजकल ‘कुहना मस्जिद' के नाम से जाना जाता है। पेशावर और लाहौर के संग्रहालयों में इस काल की विलक्षण कलाकृतियां अब भी सुरक्षित हैं।अफगानिस्तान के बामियान, जलालाबाद, बगराम, काबुल, बल्ख आदि स्थानों में अनेक मूर्तियों, स्तूपों, संघारामों, विश्वविद्यालयों और मंदिरों के अवशेष मिलते हैं। काबुल के आसामाई मंदिर को 2,000 साल पुराना बताया जाता है। आसामाई पहाड़ पर खड़ी पत्थर की दीवार को ‘हिन्दूशाहों' द्वारा निर्मित परकोटे के रूप में देखा जाता।         है।  जिन नदियों को आजकल हम आमू, काबुल, कुर्रम, रंगा, गोमल, हरिरुद आदि नामों से जानते हैं, उन्हें प्राचीन भारतीय लोग क्रमश: वक्षु, कुभा, कुरम, रसा, गोमती, हर्यू या सर्यू के नाम से जानते थे।

जिन स्थानों के नाम आजकल काबुल, कंधार, बल्ख, वाखान, बगराम, पामीर, बदख्शां, पेशावर, स्वात, चारसद्दा आदि हैं, उन्हें संस्कृत और प्राकृत-पालि साहित्य में क्रमश: कुभा या कुहका, गंधार, बाल्हीक, वोक्काण, कपिशा, मेरू, कम्बोज, पुरुषपुर (पेशावर), सुवास्तु, पुष्कलावती आदि के नाम से जाना जाता था   अंतिम हिन्दूशाही राजवंश :
सन् 843 ईस्वी में कल्लार नामक राजा ने हिन्दूशाही की स्थापना की। तत्कालीन सिक्कों से पता चलता है कि कल्लार के पहले भी रुतविल या रणथल, स्पालपति और लगतुरमान नामक हिन्दू या बौद्घ राजाओं का गांधार प्रदेश में राज था। ये स्वयं को कनिष्क का वंशज भी मानते थे।
अफगानिस्तान के आर्य नस्लीय मुस्लिम गुर्जर 
हिन्दू राजाओं को ‘काबुलशाह' या ‘महाराज धर्मपति' साही वंश ,देबपुत्र ,कहा जाता था। इन राजाओं में कल्लार, सामंतदेव खटाना, भीम खटाना, अष्टपाल खटाना, जयपाल खटाना, आनंदपाल खटाना, त्रिलोचनपाल खटाना, भीमपाल खटाना,आदि उल्लेखनीय हैं।
इन राजाओं ने लगभग 350 साल तक अरब आततायियों और लुटेरों को जबर्दस्त टक्कर दी और उन्हें सिंधु नदी पार करके भारत में नहीं घुसने दिया, लेकिन 1019 में महमूद गजनी से त्रिलोचनपाल की हार के साथ अफगानिस्तान का इतिहास पलटी खा गया।चीनी यात्री युवानच्वांग ने इस्लाम व अफगानिस्तान के बौद्धकाल का इतिहास लिखा है। गौतम बुद्ध अफगानिस्तान में लगभग 6 माह ठहरे थे। बौद्धकाल में अफगानिस्तान की राजधानी बामियान हुआ करती थी। प्रमुख गुर्जर कबीले जो बाद में गोत्र में परिवर्तित हुए हैं -चेची: प्राचीन चीनी इतिहासकारों के अनुसार बैक्ट्रिया आगमन से पहले कुषाण परिसंघ की भाई-बंद खापे और कबीले यूची कहलाते थे| वास्तव में यूची भी भाई-बंद खापो और कबीलों का परिसंघ था, जोकि अपनी शासक परिवार अथवा खाप के नाम पर यूची कहलाता था| बैक्ट्रिया में शासक परिवार या खाप कुषाण हो जाने पर यूची परिसंघ कुषाण कहलाने लगा ।गोर्सी: एलेग्जेंडर कनिंघम के अनुसार कुषाणों के सिक्को पर कुषाण को कोर्स अथवा गोर्स भी पढ़ा जा सकता हैं| उनका कहना हैं गोर्स से ही गोर्सी बना हैं| गोर्सी गोत्र भी अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत में मिलता हैं|खटाना: संख्या और क्षेत्र विस्तार की दृष्टी से खटाना गुर्जरों का एक राजसी गोत्र हैं| अफगानिस्तान में यह एक प्रमुख गुर्जर गोत्र हैं| पाकिस्तान स्थित झेलम गुजरात में खाटाना सामाजिक और और आर्थिक बहुत ही मज़बूत हैं| पाकिस्तान के गुर्जरों में यह परंपरा हैं कि हिन्द शाही वंश के राजा जयपाल और आनंदपाल खटाना थे।नेकाड़ी: राजस्थान के गुर्जरों में नेकाड़ी धार्मिक दृष्टी से पवित्रतम गोत्र माना जाता हैं| अफगानिस्तान और भारत में नेकाड़ी गोत्र पाया जाता हैं।बरगट: बरगट गोत्र अफगानिस्तान और भारत के राजस्थान इलाके में पाया जाता हैं|कसाना: अलेक्जेंडर कनिंघम ने आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, खंड IV, 1864 में कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की है| अपनी इस धारणा के पक्ष में कहते हैं कि आधुनिक गुर्जरों का कसाना गोत्र कुषाणों का प्रतिनिधि हैं| अलेक्जेंडर कनिंघम बात का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि गुर्जरों का कसाना गोत्र क्षेत्र विस्तार एवं संख्याबल की दृष्टि से सबसे बड़ा है। कसाना गौत्र अफगानिस्तान से महाराष्ट्र तक फैला हुआ है| कसानो के सम्बंध में पूर्व में ही काफी कहा चुका हैं|कपासिया: गुर्जरों की कपासिया खाप का निकास कुषाणों की राजधानी कपिशा (बेग्राम) से प्रतीत होता हैं|बैंसला: गुर्जरों की बैंसला खाप का नाम संभवतः कुषाण सम्राट की उपाधि से आया हैं| कुषाण सम्राट कुजुल कडफिस ने ‘बैंसिलिओस’ (Basileos) उपाधि धारण की थी| कनिष्क ने यूनानी उपाधि ‘बैसिलिअस बैंसिलोंन’ (Basileus Basileon) धारण की थी, जिसका अर्थ हैं राजाओ का राजा (King of King)|हरषाना, सिरान्धना, करहाना, रजाना, फागना, महाना, अमाना, करहाना, अहमाना, चपराना/चापराना, रियाना, अवाना, चांदना आदि| संख्या बल की दृष्टी से ये गुर्जरों के बड़े गोत्र हैं| सभवतः इन सभी खापो का सम्बन्ध कुषाण परिसंघ से रहा हैं इनके अतिरिक्त कुछ प्रमुख गोत्र हकला , कामर, फामडा , चौहान, सोलंकी, तूर, तुअर, हुण, हरहुन, हुग, गोचर, पोसवाल,मोटला, छाबड़ा,मिलू, आदि मौजूद हैैं.