कुषाण वंश को भारत मे गुर्जर उत्पत्ति का मुख्य आधार माना जाता है या यूं कहूं की मध्यएशिया के गुर्जर कबीलों मै सबसे शक्तिशाली कबीला तथा न्याय प्रिय कबीला था जिसने Domrata- Law of the living word की उपाधि धारण की जिनसै आज दोराता गोत्र बना है कुषाण से कसाना /कसाणा गोत्र आज गुर्जरों में हैं ,बेसलीओन से बैसला गोत्र बना हे कोर्स से गोरसी गोत्र बना हे ये सभी गोत्र आज गुर्जरों में बहुत आबादी में मौजूद हैं जो भारत पाकिस्तान मै अच्छी खासी संख्या मे है, कुषाणोँ ने मध्य एशिया के असंख्य स्थानों को अपने नाम दिये जिनपर आज भी गुर्जरों के वशंज रहते हैं कुषाणोँ ने मथुरा कला, गान्धार कला, आदि कलात्मक सभ्यताओं के विकास किये थे कुषाणोँ का कबीला मुख्यत: इन्डो यूरोपियन भाषा समूह का कबीला था |जिसने अपनी अलग ऐक भाषा का विकास किया तोचरियनस भाषा कहलाती थी जिसमें सै बख्त्री भाषा का आगमन हुआ और बैक्ट्रिया पर शासन कर के बख्त्री भाषा का मध्यएशिया मे महत्व बडा दिया था पुराणों के अनुसार ‘’तुरुश्क/तुषार’’ कहा गया है जो की इनके भाषा समूह की बजह सै पढा था लेकिन यह नाम भारतीय ग्रन्थों मे बहुत है यवनाष्टौ भविष्यन्ति तुषाराश्चतुर्दश।
त्रयोदश गुरुण्डाश्च हूणाह्येकोनविंशति: ॥मत्स्य पुराण 272-19॥
अर्थात आठ यवन चौदह तुषार तेरह गुरुण्ड तथा उन्नीस हूण शासन करेंगे।
हम इतिहास से जानते हैं कि शाकल नरेश मिलिंदर यवन था। मिहिरकुल आदि हूण थे। मुरुंडों का शासन मगध में था। उसी समय एक और विदेशी राजवंश था जिस की उपेक्षा कोई इतिहास वेत्ता नहीं कर सकता। वह राजवंश था कुषाण। यह कैसे हो सकता है कि पुराण कार इस वंश को भूल गया हो। वस्तुतः पुराण ने कुषाण को तुषार कहा है।
कल्हण ने कनिष्क को तुरुष्क कहा है। अब रही तुषार तथा तुरुष्क की ऐक्यता की बात तो वह पुराणों से स्पष्ट है। मत्स्य वायु (99-360) तथा ब्रह्माण्ड पुराण (3-74-172) में उपरोक्त श्लोक में तुषार शब्द का प्रयोग किया गया है जबकि विष्णु (4-24-53) तथा भागवत (12-1-28) में तुरुष्क। अतः जिसे मत्स्य वायु तथा ब्रह्माण्ड पुराण तुषार कह रही हैं उसे ही विष्णु तथा भागवत तुरुष्क कह रही हैं। इस लिए तुषार तथा तुरुष्क एक ही है।
कनिष्क के सिक्कों पर उसे कुषाण कहा है। अतः साहित्य तथा पुरातात्विक सामग्री का समन्वय करते हुए हम कह सकते हैं कि कुषाण तुरुष्कों की एक शाखा या कुल था। ब्रह्माण्ड तथा वायु पुराण के अनुसार तुरुश्को ने 500वर्ष शासन किया था वह इस श्लोक सै सिध्द हो रहा है
पंचवर्षशतानीह तुषाराणां मही स्मृता ॥ब्रह्माण्ड पुराण 3-74-176॥ वायु 99-362॥
यवन तुरुष्क मुरुण्ड तथा मौन (हूण) चारों का शासन काल विष्णु में 1०9० तथा भागवत में 1०99 वर्ष दिया है।
अतः कुषाणों ( तुषार या तुरुष्क) नें 5०० वर्ष शासन किया था |कुषाण कालीन आर्याव्रत पांच भागो मे बटा था | जिसका वर्णन गुर्जर प्रतिहारों के राजकवि राजशेखर ने अपने ग्रन्थ काव्यमीमांसा मे कहा है की
भारतवर्षस्य नव भेदा: सम्राटचक्रवर्तिनोर्व्याख्ये।आर्यावर्तस्य पूर्वदेशो, दक्क्षिणापथ:, पश्चादेश:,उत्तरापथ: , मध्यदेशश्चेति पञ्च विभागा : ।|| पेज 98 kaavymeemansha||
आर्याव्रत आर्याव्रत का निर्माण इन देशों को मिलाकर भारतवर्ष तथा आर्याव्रत का निर्माण हुआ था जिसमे पूर्वदेश , पश्चिमदेश,उत्तरपथ,मध्यपथ तथा दक्क्षिणपथ सै मिलकर बना है |
The portion lying beyond पृथूदक is उत्तरापथ
मे ज्ज्ञात देश जिनका वर्णन काव्यमीमांसा मै करते हुऐ राजशेखर कवि ने जो की गुर्जरो के राजकीय कवि थे उन्होने जिन देशों का वर्णन किया उनमे हूण ,बाह्यीक ,तुषार ,तुरुष्क ,बर्बर ,हरहूर ,हुहुक , हंसमार्ग तड्गण{2} आदि देश थे जिनमे लगता है कुषाणोँ तथा हूंणों के कुल कबीले बहुत बडे थे जिसमैं इनकी मात्रा मध्यऐशिया मै सबसै ज्यादा थी जब इन गुर्जर कबीलों के विलय हुऐ तो ऐक नवीन पहचान बने जिनको गुसुर (गुर्जर) कहा गया उत्तरापथ मे कुल 21 देशों का वर्णन किया है जिसमे गुर्जरो सै सम्बन्धित सबसे अधिक हैं इनका सम्बन्ध कल के बाल्हीक देश तक था तथा अराल सागर और गासू प्रदेश तक था
अथ वीरभरुश्चैव कालि काश्चैवशूलिकान् ।
तुषारान बर्बरानंगान्यग्रहणात्परदांन्शंकान । || मतस्य पुराण 52।45।402 ||
अर्थात -
हिमवान को दो भागो मे बांट कर दक्षिण सागर मे प्रवेश कर गई ऐक और वीर मरु कालिका -शूलिका तुषार ,वर्बर,अनड्ंग,पारद और शकों को ग्रहण किया थी |
‘शकास्तुषाराः कंकाश्च’ (सभापर्व 51-31),
सभापर्व के अनुसार महाभारत काल मै ये तुषार(कुषाण) सभ्यता अपने चरम पर थी उस समय इनके देश मै तुषार आबद थे||
सान्ध्रान् स्तुखारान् लम्पकान् पह्लवान् दरदान् छकान् |
अताञ्जनापदाञ्चक्षु प्लावयन्ती गतोदधिम् | || वायुपुराण 47-44||,|| मत्स्यपुराण 121-45-46||
श्लोक के आधार पर यह सिद्ध हुआ है कि चक्षु या वक्षु नदी जिसे आजकल Oxus River कहते हैं, जो पामीर पठार से निकल कर उत्तर पश्चिम की ओर अरल सागर में गिरती है, यह तुषार आदि देशों में से ही बहती थी। इन सब देशों की सीमा राजशेकर के भारतवर्ष मे ही आती थी जिसका वर्णन ऊपर किया गया है| तुषारगिरि नामक पर्वत का वर्णन है जो कि बाद में हिन्दूकुश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। तुषारगिरि नाम तुषार के नाम पर पड़ा। (महाभारत भीष्मपर्व, 9वां अध्याय)
गांधार यवनाश्चैव सिंधुसौवीरमण्डला:| ,
चीनाश्चैयव तुषाराश्च पल्लवा गिगिरिगह्वरा:।।४७ ब्राह्मणपुराण p.९६
उत्तर मे जो हैं वे चीन तुषार पल्लव गिरि गह्वरशक भद्र कुलिन्द पारद विन्ध्यचूलिका अभीषाह उलूत आदि देश हैं जिनमे ब्राह्मण क्षत्रीय तथा वैश्य और सूद्र रहते हैं मलेच्छ का कोई वर्णन नही है ना ही इनका भारत के बाहर के होने का कोई वर्णन है ,उक्त वर्णन के अनुसार कोई भी यह नही कह सकता है की ये विदेशी थे जितने भारतीय ग्रन्थों हैं वह यही कहते हैं की यह उत्तरापथ के थे जिनकी आबादी समस्त यूरोप मै फैली है अधिकतर यूरोप के देशों का विकास उत्तरापथ के गुर्जरो के द्वारा किया गई है जिनमे चैचन्या, गोरजिया, कोसान, खोटान,बगलान प्रान्त, हिन्दुकुश, कोसान(ईरान), गोजर आदी दर्जनों स्थान हैं जो गुर्जर कुषाणोँ सै सम्बन्धित हैं,
तूरान और तुषार- ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में 'ऐर्य-तुर्य' शब्दों का उल्लेख है, जिसकी वजह से इस पूरे भूक्षेत्र के लिए ईरान के साथ तूरान(तुषार) नाम भी चलन में आया गौरतलब है कि ईरान शब्द की व्युत्पत्ति 'आर्य' से हुई है , ईरान का उत्तरी क्षेत्र प्राचीन काल में 'तूरान(तुषार) ' के नाम से जाना जाता था , संस्कृत में तुर्क के लिए 'तुरुष्क' शब्द है। अवेस्ता में इसे ही 'तुर्य' कहा गया है |इसके अलावा अवेस्ता की कथाओं में एक उल्लेख मध्य एशिया के प्रतापी सम्राट फरीदुन का भी मिलता है, जिसके तीन पुत्र थे। 'सल्म' (अरबी में सलामत), 'तूर' और 'इरज़'। किन्हीं संदर्भों में तूर का उल्लेख 'तुरज़' भी आया है। सम्राट ने पश्चिमी क्षेत्र के सभी राज्य, जिसमें अनातोलिया भी था, सल्म को दिए। तूर को मंगोलिया, तुर्किस्तान और चीन के प्रांत दिए और साम्राज्य का सबसे अच्छा इलाका तीसरे पुत्र ईरज़ को सौंपा संस्कृत और अवेस्तामें उल्लेखित 'तुरुष्कः', 'तुर्य' अथवा 'तूर' से ही तुर्क शब्द बना है और प्राचीन काल में इसे ही 'तूरान' या 'तुरान' कहा जाता था। इस शब्द के दायरे में सभी मंगोल, तुर्क, कज़ाख, उज़बेक आदि जाति समूह आ जाते हैं। उल्लेखनीय है कि अवेस्ता में 'आर्य' का उच्चारण 'ऐर्य' होता है। 'एर' का अर्थ होता है 'सीधा, सरल, सभ्य'। 'तूर' का मतलब होता है 'ताकतवर, कठोर, मज़बूत'। हिन्दी में प्रचलित तेज़-तर्रार और तुर्रमखाँ जैसे मुहावरों के पीछे यही तुरुष्क, तूरान और तुर्क का प्रभाव रहा है।
गुर्जर व्याख्या- कुषाण वंश का गुर्जर होना उतना ही खरा हे जितना आज उनके प्रतिनिधि कुषाण/कसाना/खटाना /बैसला /गॉर्सी हैं, जितना सच आज इनका गुर्जर होना हे उतना ही सच कल इनका कुषाण वंश से होना था , यह माना जाता हे की गुर्जर शब्द की उत्पत्ति ईरानी शब्द ‘गुशुर’ से हुई हैं, जिसका अर्थ हैं राजपरिवार अथवा राजसी परिवार का सदस्य थे |कुषाणोँ की सभी उपाधियाँ आज गुर्जर समाज मै बहुत सै गोत्र बना चुकी है जिन सै साफ पता लगता है | मेलूं (Melun) ,दोराता(Domrata- Law of the living word),मुंडन मुरुंड (lMurunda) मंडार, मौडेल और मोतला खाप का सम्बंध मुंडन खाप से हैं ,बैंसला (कुषाण सम्राट कुजुल कडफिस ने ‘बैंसिलिओ’ उपाधि धारण की थी कनिष्क ने यूनानी उपाधि ‘बैसिलिअस बैंसिलोंन’ (Basilius Basileon) धारण की थी, जिसका अर्थ हैं राजाओ का राजा (King of King), कपासिया कुषाणों की राजधानी कपिशा (बेग्राम) कपसिया खाप के, गंगा जमुना के ऊपरी दोआब स्थित बुलंदशहर क्षेत्र में १२ गाँव हैं ‘’देवड़ा/दीवड़ा” कैम्पबेल ने भीनमाल नामक अपने लेख में देवड़ा को कुषाण सम्राट कनिष्क की देवपुत्र उपाधि से जोड़ा हैं ,
कसाना:कसानो को कनिंघम की सर्वमान्य व्याख्या करते हुऐ कुषाण को कसाना का वशंज तो बताया ही है अलेक्जेंडर कनिंघम ने आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, खंड IV, 1864 में कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की है| अपनी इस धारणा के पक्ष में कहते हैं कि आधुनिक गुर्जरों का कसाना गोत्र कुषाणों का प्रतिनिधि हैं| अलेक्जेंडर कनिंघम बात का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि गुर्जरों का कसाना गोत्र क्षेत्र विस्तार एवं संख्याबल की दृष्टि से सबसे बड़ा है। कसाना गौत्र अफगानिस्तान से महाराष्ट्र तक फैला हुआ है| कसानो के सम्बंध में पूर्व में ही काफी कहा चुका हैं| तथा कनिंघम की बात को आगे बडाते हुऐ "डैनजिल इबैष्टोन" ने अपनी बुक "कास्ट ओफ पंजाब" मै कहा है की कुषाण राजा इन्हीं गुर्जरो के राजा थे तथा मथुरा राजधानी को ब्रज का मध्यबिन्दू कहा गया है जिसके अनुसार दक्षिण तथा मध्यभारत तक मै कुसानों की आबादी सभी खांपों मे सबसे ज्यादा है, इसी पक्ष मे अपना मत रखने बाले “सुशील भाटी” जी ने आगे ऐक नई व्याख्या का आगमन किया जिससे ऐक नऐ श्रोत खुलते हैं’’ गुशुर>गुजुर>गुज्जर>गुर्ज्जर>गुर्जर’’ कुछ इतिहासकार के अनुसार गुर्जर शब्द की उत्पत्ति ‘गुशुर’ शब्द से हुई हैं| गुसुर ईरानी शब्द हैं| एच. डब्लू. बेली के अनुसार गुशुर’ शब्द का अर्थ ऊँचे परिवार में उत्पन्न व्यक्ति यानि कुलपुत्र हैं| ‘गुशुर’ शब्द का आशय राजपरिवार अथवा राजसी परिवार के सदस्य से हैं| बी. एन. मुख़र्जी के अनुसार कुषाण साम्राज्य के राजसी वर्ग के एक हिस्से को ‘गुशुर’ कहते थे | सबसे पहले पी. सी. बागची ने गुर्जरों की ‘गुशुर’उत्पात्ति के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था| प्रसिद्ध इतिहासकार आर. एस. शर्मा ने गुर्जरों की ‘गुशुर’उत्पात्ति मत का समर्थन किया हैं |बम्बई गजेटियर भाग ६ जिल्द १प्रष्ट ४६१, मे सर जेम्स केम्पबेल कसाने कसाने-कुशन गुर्जरों के महत्वपूर्ण गोत्र के मानते हुऐ लिखते हैं ‘’The Gurjar sub-division of kusane on the indus and Jamuana suggest a requriment from the great Saka tribe of Kusan before the White-huns horde the power of Kusanas had been broken by Samudra Gupt (AD396+15) existence of a Kusan sub-division of Gurjar (so far as it goes )seems to favour that the kusan and gurjar are difrent not the view’ श्री यतेन्द्र कुमार वर्मा जी ने अपने ग्रन्थ मे यक कबूल किया है कि कुषान यूची गुर्जर थे जिसका सम्पूर्ण वर्णन (gurjar itihas p.166)मे किया है और कहा है की यह शुध्द आर्य तथा गुर्जर थे जिनके वर्णन भारत तथा मध्य एसिया मै विध्दमान हैं ’ कनिंघम ने कसाना के साथ साथ ऐक और पहचान की तरफ इसारा करते हुऐ कहा है की कुषाणोँ के कुछ सिक्कों की तरफ इसारा करते हुऐ कहा है की "Korso" इस को "गोर्सी" "Gorsi" सै पहचान करते हैं, चुंकी यह गोत्र भारत तथा पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मे बहुत अच्छी मात्रा मे हैकुषाणोँ के ही साम्राज्यों मे उनके विघटन के बाद बहुत सै गुर्जर जाति सै सम्बन्धित बहुत से देशों मे गुर्जर शब्द को ऐक पहचान मिली जो ऊधर की ऐक जाति बनी जिनमे गुर्जर जाति सै कुछ अलग नहीं था बस क्षेत्र ओर उनके समय अलग अलग थे लेकिन इतना जरूर है की जितनी गुर्जर शब्द को सद्रणता भारत मे मिली उतनी ही कुषाणोँ के राजवंश के विघटन के बाद बनी असंख्य गुर्जर कबीलों के थे जिनमे क्षेत्र अनुसार Gurjar (north India) ,Gorjar (East India),Gujjar(North west India and Pakistan),Gojar (kazakhastan) ,Gujar (Afghanistan and Iran) ,Kazar (georgiya),Qazar(iran), Gusarova(Russia), Gusar(Turkey and chechenya), Hungarian (Hnagari mens giri-mountain area of Hunas),and Chechanya (chenchenya),gojar(spain), etc.श्री यतेन्द्र कुमार वर्मा जी ने अपने ग्रन्थ मे यक कबूल किया है कि कुषान यूची गुर्जर थे जिसका सम्पूर्ण वर्णन (p.166)मे किया है और कहा है की यह शुध्द आर्य तथा गुर्जर थे जिनके वर्णन भारत तथा मध्य एसिया मै विध्दमान हैं, ए.एच. बिंगले भी कुषाण\ यू ची लोगों के इंडो सीथियन रेस के तुषार सै ही गुर्जरों की उत्तपत्ति पर जोर दिया है |
युइशि जाति-
1. हिउ-मी
2. शुआंग-मी
3. कुएई-शुआंग
4. ही-तू
5. काओ-फ़ू
युइशि लोग अपने ये पाँच राज्य स्थापित कर चुके थे। इन राज्यों में परस्पर संघर्ष चलता रहता था। बैक्ट्रिया के यवन निवासियों के सम्पर्क में आकर युइशि लोग सभ्यता के मार्ग पर भी अग्रसर होने लगे थे, और वे उस दशा से उन्नति कर गए थे, जिसमें कि वे तक़ला मक़ान की मरुभूमि के समीपवर्ती अपने मूल अभिजन में रहा करते थे युईसी जाति के पांच कुलो को ऐकत्रित करने का मुख्य योगदान कुजुल कडफाइसिस को है जिसने ऐकत्रित किया युईसी की विखडिण्त तागत को ऐक जुट किया था हांलांकी कुषाण वंश का प्रथम राजा हैरोइस को माना जाता है लेकिन बैक्ट्रिया मे आने बाले लोग कुजुल को ही अपना सरदार बनाकर लाये थे युईसी जाति को स्थान अम्मू दरिया पर बसून सै सामना करना पढा तथा इनका मुख्य स्थान गासू प्रान्त या गासू प्रदेश था जिसमे इनको अपने कुल भाईयों सै हमेशा संघर्षों का सामना करना पढा था क्योंकि इनके प्रान्तो मे चारागाह पर्याप्त थे मगर बर्बरता के पर्याय रहे हूंण वंशीय ने इनको ऊधर सै खदेड दिया था क्योंकि आतातई हूंणों के सभी आक्रमण कुषाणोँ को ही झेलने पडे थे कुषाणोँ के बुरे समय मे मोदू ने उनका साथ दिया था
कुषाण वंश के राजा--->
१-हेराइस (1-45ad)
२.कुजुल(80-95ad)
३.विम ताकतो(95-115ad)
४.कनिष्का(115-140ad)
५.हुविष्का (140-180ad)
६.वसुदेव (180-210ad)
७.कनिष्क दुतीय (210-230ad)
८.वसिष्क (230-255ad)
९.कनिष्क तृतीय (255-275ad)
१०.वशकुषान (275-290ad)
११.वशुदेव दुतीय (290-310ad)
१२.शका (310-325ad)
१३.xanesh (325-335ad)
१४.वशिष्क (335-360ad)
१५.वसुदेव तृतीय (360-365ad)
१६.किपुन्डा (365-375ad)
कुषांण वंश के प्रथम सै तीन राजा जो की विवादित रहे हैं की ये ग्रीक हैं की कुशान हैं जबकी निशकर्ष तक अब तक मिओस को बतया है B.n.mukhrji ने जबकी अन्य इतिहासकारों के मत हैरोइस के हैं जबकी इंडों ग्रीक कल्चर के सिक्के जिनपर नाना और हैर्कूलिस की अंकन तो यही बताता है की यह कुषाण के वंशागत राजा रहे हैं
1-Sapalbizes
2=Arseiles
3-Pabes
भारत मे नाग राजाओं के सहयोग सै कुषाण वंश के अन्तिम राजा किपुन्डा जो की मजबूती सै शासन को नही सम्भाल पाये और नजदीकी नाग रियासतें ऐकजुट होकर इनका अन्त कर देती है और सत्ता नागों के पास आ जाती है लेकिन भारत मे अन्त होने के बाद अफगानिस्तान तथा हजारा मे 3 ad मे इनके ही किसी वशंज के ऐक रियासत पर आसीन होने की सम्भावना जताई गई है |
चन्द्रम उपासक&(वंशी)-
चीन मे ग्रीक की चन्द्रमा की देवी को "चांगे" रोमन मे "लूना" ग्रीक मैं इसै "सेलेन" तथा "आर्टमीश" कहा करते थे ,और इनके मुद्राऔं सै प्राप्त नाना देवी के शर पर विराजमान चन्द्रमा की आक्रति का चिन्ह इसी और इसारा कर रहा है कि यह चन्द्र उपासक थे,75bc मैं जिस किनारे पर यह लोग रहते थे उसके पास ही "इला" नाम की नदी भी निकलती है इला सूर्य के पूत्र , इला सूर्य के पूत्र मनू की पुत्री थी जिस सै चन्द्रवंशियों की उत्पत्ति हुई है यह तो धार्मिक मान्यताप्राप्त सन्दर्भ है लेकिन जिस जाति सै यह लोग थे जिसको "यूईसी"/यूची" कहा गया है इतिहास मैं उसका भी अर्थ यही निकलता है "चन्द्रमा की जाति " इलल नदी के तटों पर भी बुद्ध धर्म से सम्बंधित कुछ चित्राकलायें मिली हैं जिनसे इनके उधर रहने की सदृढ़ता मिलती हे इल्ल नदी साथ ही ये भी पता चलता हे की बसून ने उधर भी इनको नहीं रहने दिया था
गुजरी भाषा व्याखया - कुषाणोँ ने बैक्ट्रीया पर अधिकार किया उसे समय ऊधर ग्रीक सभ्यता तथा लिपी ज्यादा मात्रा मे उपस्थित थी क्योंकि की ग्रीकों के अधीन यह जगह काफी समय सै थी जब कुषाणोँ ने अधिकार किया तो इनकी भाषा की जगह पर आर्य भाषा को लाये जबकी प्रारम्भिक समय मे ईधर खरोष्टी भाषा ही ग्रीक लिपी मै चलती थी ज्यादा जिसके कुछ समय बाद यह बख्त्री भाषा का उपयोग होने लगा जंहा तक है रोबोटक अभिलेक के अनुसार इनके नामो के वर्णन मे "ओ" को ज्यादा महत्वदिया गया है जिसमे हम इस बात को देखते हैं की यह लोग बोलते कैसे थे उस समय Ozeno (Ujjain), Kozambo (Kausambi), Zagedo (Saketa), Palabotro (Pataliputra) and Ziri-Tambo (Janjgir(ship)-Champa). तथा कनिंघम के अनुसार जिस सिक्के पर कोर्स लिखा है अगर उसे गोर्स (गोर्सी) पढना चाहिये तो kus(a^-)na तो k=G, Gus(a^-)NA इसी क्रम मै आगे इनके सिक्कों पर तथा बी.ऐन.मुख़र्जी के अनुसारKomaro (Kumara) and called Maaseno (Mahasena) and called Bizago (Visakha), Narasao और Miro (Mihara). आदि शब्द इनके सिक्कों पर मिलते हैं जिनके अनुसार वासुदेव को वाजुदेव पढना चाहिये तथा स/श की जगह पर ये लोग "ज" का उपयोग करते थे अब हम कुसान/कुषान पर ध्यान देते हैं "क" को जब कनिंघम ने "ग" बताया है तब आगे "गुजान"(Gujan) जो की गूजर शब्द कि ही अप्रभंस है Komaro (Kumara) and called Maaseno (Mahasena) and called Bizago (Visakha), Narasao और Miro (Mihara). आदि शब्द इनके सिक्कों पर मिलते हैं जिनके अनुसार वासुदेव को वाजुदेव पढना चाहिये तथा स/श की जगह पर ये लोग "ज" का उपयोग करते थे अब हम कुसान/कुषान पर ध्यान देते हैं "क" को जब कनिंघम ने "ग" बताया है तब आगे "गुजान"(Gujan) जो की गूजर शब्द कि ही अप्रभंस है।जी. ए. ग्रीयरसन ने लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, खंड IX भाग IV में गूजरी भाषा का का विस्तृत वर्णन किया हैं| गूजरों की भाषा गूजरी के बारे मे लिखने बाले सर डेन्जिल इबटसन ने कास्ट एन्ड ट्राइब्स आफ दी पिपुल (पंजाब कास्टस) 1883’’ इनकी भाषा पंजाबी तथा पश्तो सै बिल्कुल भिन्न हिन्दी है जो नरम जुबानी है "इसी भाषा को पूंछ ऐवटाबाद मे बोली जाती है जिसको नरम भाषा गूजरी कहते हैं यही भाषा अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान के सीमा प्रान्त इलाकों मे बहुतायात मे बोली जाती है यह क्षेत्र गुर्जरो के ही अधीन रहा है चाहे वो कसाणा /कुषाण हों या उनके वशंज खटाना या प्रतिहार हों लेकिन इतिहासकारों के अनुसार हूंणों के आगमन के समय इस भाषा का चलन कहा गया है जबकी इसका सम्बन्ध तो बख्त्री सै मिलते हैं | जाहीर सी बात हे की कुसन वंश के बाद भारत में किसी भी नयी जाती का आगमन नहीं हुआ हे जिस ने खुद की कोई संस्कृति का विकाश किया हो लेकिन वो सिरफ कुसन वंश ने किया था जिस का जीता जगता सबूत उनकी भाषा तथा उनके अभिलेख मूर्तिकला आदि भारत में ज़िंदा हैं जिस से इस का पता लगता हे की यह राजवंश अपने समय में तररक्कि के किस पथ पे गमन कर रहा था लेकिन गुजरी भाषा के जो प्रमाड कुषाणों के समय में मिलते हैं वो किसी भी समय में नहीं मिलते हैं कुसनो के बाद सबसे बड़ा माइग्रेशन हूणों का हुआ जिन की कोई भासा नहीं थी अगर हूडों की कोई भाषा होती तो माना जा सकता था की कुसन काल की भासा का इनके साथ कुछ मिलावट होसकती थी मगर ऐसा नहीं हुआ आज भी हम देखें तो कुसन और हूँड़ों के राज करने की जो रियासतें थीं उनमे मूलरूप से गुजरी भाषा का ही चलना हे उत्तरप्रदेश के गुर्जर बहुल एरिया में आज भी राम राम को रोम रोम बोलै जाता हे,ओ को कॉमन कर के बोलै जाता हे जब आज कुषाण राजवंश को ख़त्म हुए २००० वर्ष हो चुके हैं लेकिन हमारे लोगों की आज भी वोही भासा हे | वैसे ही गूजरी बोली में राम को रोम, पानी को पोनी, गाम को गोम, गया को गयो आदि बोला जाता हैं|इसी भासा में कुसानो के सिक्कों उन्हें बाख्त्री में कोशानो लिखा हैं और वर्तमान में गूजरी में भी ओ को अतिरिक्त जोड़ के कोसानो बोला जाता हौं| अतः कुषाणों द्वारा प्रयुक्त बाख्त्री भाषा और आधुनिक गूजरी भाषा की समानता भी कुषाणों और गूजरों की एकता को प्रमाणित करती हैं|
सूर्य पूजन- सूर्य पूजन दो प्रकार से किया जाता है। एक तो मण्डलाकार बिम्ब का पूजन और दूसरे मानव रुपिणी सूर्य-प्रतिमा का पूजन। सूर्य की भारतीय पद्धति की नर आकार प्रतिमा, जिसे कुषाण काल के पूर्व की माना जाता है, बुद्ध गया से प्राप्त हुई है। वह रथारुड़ है। परन्तु यह रुप भारत में विशेषकर कुषाण काल में लोकप्रिय न हो सका। इसक कदाचित् यह भी कारण था कि मानवाकार सूर्य की उपासना भारत में मुख्यत: ईरान से आई।
ये विदेशी लोग जिन्हें भारतीय साहित्य में 'मग' नाम से जाना गया, अपने साथ सूर्य उपासना की पद्धति ले आए, इन्हीं के वेश के समान इनके देवताओं की वेशभूषा भी होना स्वाभाविक था। इसलिए कुषाण कालीन सूर्य मूर्तियाँ लम्बा कोट, चुस्त पाजामा और ऊँचे बूट पहने हुए दिखलाई पड़ती है। इस वेश को भारत में 'उदीच्य' वेश के नाम से जाना गया। कुषाण कालीन माथुरी कला में रथारुड़ एवं आसनारुड़, सूर्य की लंबा कोट, बूट, गोल टोपी तथा इने-गिने अलंकरण धारण की हुई प्रतिमा पाई गई है। एक मूर्ति में उनके छोटे पंख भी दिखलाए गए हैं (मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या-डी-४६) दूसरी में उनके आसन पर ठीक वैसी ही अग्नि की बेदी बनी है जैसी कतिपय ईरानी सिक्कों पर पाई जाती है। रालैण्ड के अनुसार –(certainly even in primitive Buddhism sakyamuni had come to be identifieed with the sun god and his nativity linked to the rising of another sun) निश्चय ही प्रारम्भिक बौध्द धर्म मे शाक्यमुनी की पहचान सूर्य देवता सै की जाने उगी थी और उनका जन्म दूसरे सूर्योदय के रूप मे माना जाता है| भारत में पहले सूर्य मन्दिर की स्थापना मुल्तान में हुई थी जिसे कुषाणों ने बसाया था। पुरातत्वेत्ता एं0 कनिघम का मानना है कि मुल्तान का सबसे पहला नाम कासाप्पुर था चूकि भारत मे सूर्य और कार्तिकेय की पूजा को कुषाणों ने लोकप्रिय बनाया था, इसलिए इस दिन का ऐतिहासिक सम्बन्ध कुषाणों और उनके वंशज गुर्जरों से हो सकता हैं| कुषाण और उनका नेता कनिष्क (78-101 ई.) सूर्य के उपासक थे| इतिहासकार डी. आर. भंडारकार के अनुसार कुषाणों ने ही मुल्तान स्थित पहले सूर्य मंदिर का निर्माण कराया था| भारत मे सूर्य देव की पहली मूर्तिया कुषाण काल मे निर्मित हुई हैं| पहली बार कनिष्क ने ही सूर्यदेव का मीरो ‘मिहिर’ के नाम से सोने के सिक्को पर अंकन कराया था| पेशावर के पास शाह जी की ढेरी नामक स्थान पर कनिष्क द्वारा निमित एक बौद्ध स्तूप के अवशेषों से एक बक्सा प्राप्त हुआ जिसे ‘कनिष्का सकास्केट’ कहते हैं, इस पर सम्राट कनिष्क के साथ सूर्य एवं चन्द्र के चित्र का अंकन हुआ है| इतिहासकार वी. ए. स्मिथ के अनुसार कनिष्क ढीले-ढाले रूप के ज़र्थुस्थ धर्म को मानता था, वह मिहिर (सूर्य) और अतर (अग्नि) के अतरिक्त अन्य भारतीय एवं यूनानी देवताओ उपासक था| दक्षिणी राजस्थान में स्थित प्राचीन भिनमाल नगर में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण काश्मीर के राजा कनक (सम्राट कनिष्क) ने कराया था। मारवाड़ एवं उत्तरी गुजरात कनिष्क के साम्राज्य का हिस्सा रहे थे। भिनमाल के जगस्वामी मन्दिर के अतिरिक्त कनिष्क ने वहाँ ‘करडा’ नामक झील का निर्माण भी कराया था। भिनमाल से सात कोस पूर्व ने कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनिष्क को दिया जाता है|मिहिर (सूर्य) के उपासक थे। सूर्य का एक पर्यायवाची ‘मिहिर’ है, जिसका अर्थ है, वह जो धरती को जल से सींचता है, समुद्रों से आर्द्रता खींचकर बादल बनाता है। गुर्जरों को आज तक मिहिर बोला जाता हे, राजस्थान में इसी के साथ ये एक सम्मानीय भी हे
निष्कर्ष -कुषाण वंश के इतिहास को समझने के बाद यही दीखता हे की ये वंश गुर्जरों का ही था जिस पे देशी या विदेशी बोलना गलत हे और साथ ही ये वंश हिन्दू ,बुद्धा ,पारशी ,अर्थात सभी धर्मों को एक सामान मानते थे इनके इतिहास में हर धर्म की नीव को मजबूती मिली थी इनपे एक धर्म का बोलना बिलकुल गलत हे|
लेखक -इंजी राम प्रताप सिंंह गुर्जर
पता- हनुमान रोड मेहगांव भिन्ड
हाल-त्यागी नगर मुरार ग्वालियर
त्रयोदश गुरुण्डाश्च हूणाह्येकोनविंशति: ॥मत्स्य पुराण 272-19॥
अर्थात आठ यवन चौदह तुषार तेरह गुरुण्ड तथा उन्नीस हूण शासन करेंगे।
हम इतिहास से जानते हैं कि शाकल नरेश मिलिंदर यवन था। मिहिरकुल आदि हूण थे। मुरुंडों का शासन मगध में था। उसी समय एक और विदेशी राजवंश था जिस की उपेक्षा कोई इतिहास वेत्ता नहीं कर सकता। वह राजवंश था कुषाण। यह कैसे हो सकता है कि पुराण कार इस वंश को भूल गया हो। वस्तुतः पुराण ने कुषाण को तुषार कहा है।
कल्हण ने कनिष्क को तुरुष्क कहा है। अब रही तुषार तथा तुरुष्क की ऐक्यता की बात तो वह पुराणों से स्पष्ट है। मत्स्य वायु (99-360) तथा ब्रह्माण्ड पुराण (3-74-172) में उपरोक्त श्लोक में तुषार शब्द का प्रयोग किया गया है जबकि विष्णु (4-24-53) तथा भागवत (12-1-28) में तुरुष्क। अतः जिसे मत्स्य वायु तथा ब्रह्माण्ड पुराण तुषार कह रही हैं उसे ही विष्णु तथा भागवत तुरुष्क कह रही हैं। इस लिए तुषार तथा तुरुष्क एक ही है।
कनिष्क के सिक्कों पर उसे कुषाण कहा है। अतः साहित्य तथा पुरातात्विक सामग्री का समन्वय करते हुए हम कह सकते हैं कि कुषाण तुरुष्कों की एक शाखा या कुल था। ब्रह्माण्ड तथा वायु पुराण के अनुसार तुरुश्को ने 500वर्ष शासन किया था वह इस श्लोक सै सिध्द हो रहा है
पंचवर्षशतानीह तुषाराणां मही स्मृता ॥ब्रह्माण्ड पुराण 3-74-176॥ वायु 99-362॥
यवन तुरुष्क मुरुण्ड तथा मौन (हूण) चारों का शासन काल विष्णु में 1०9० तथा भागवत में 1०99 वर्ष दिया है।
अतः कुषाणों ( तुषार या तुरुष्क) नें 5०० वर्ष शासन किया था |कुषाण कालीन आर्याव्रत पांच भागो मे बटा था | जिसका वर्णन गुर्जर प्रतिहारों के राजकवि राजशेखर ने अपने ग्रन्थ काव्यमीमांसा मे कहा है की
भारतवर्षस्य नव भेदा: सम्राटचक्रवर्तिनोर्व्याख्ये।आर्यावर्तस्य पूर्वदेशो, दक्क्षिणापथ:, पश्चादेश:,उत्तरापथ: , मध्यदेशश्चेति पञ्च विभागा : ।|| पेज 98 kaavymeemansha||
आर्याव्रत आर्याव्रत का निर्माण इन देशों को मिलाकर भारतवर्ष तथा आर्याव्रत का निर्माण हुआ था जिसमे पूर्वदेश , पश्चिमदेश,उत्तरपथ,मध्यपथ तथा दक्क्षिणपथ सै मिलकर बना है |
The portion lying beyond पृथूदक is उत्तरापथ
मे ज्ज्ञात देश जिनका वर्णन काव्यमीमांसा मै करते हुऐ राजशेखर कवि ने जो की गुर्जरो के राजकीय कवि थे उन्होने जिन देशों का वर्णन किया उनमे हूण ,बाह्यीक ,तुषार ,तुरुष्क ,बर्बर ,हरहूर ,हुहुक , हंसमार्ग तड्गण{2} आदि देश थे जिनमे लगता है कुषाणोँ तथा हूंणों के कुल कबीले बहुत बडे थे जिसमैं इनकी मात्रा मध्यऐशिया मै सबसै ज्यादा थी जब इन गुर्जर कबीलों के विलय हुऐ तो ऐक नवीन पहचान बने जिनको गुसुर (गुर्जर) कहा गया उत्तरापथ मे कुल 21 देशों का वर्णन किया है जिसमे गुर्जरो सै सम्बन्धित सबसे अधिक हैं इनका सम्बन्ध कल के बाल्हीक देश तक था तथा अराल सागर और गासू प्रदेश तक था
अथ वीरभरुश्चैव कालि काश्चैवशूलिकान् ।
तुषारान बर्बरानंगान्यग्रहणात्परदांन्शंकान । || मतस्य पुराण 52।45।402 ||
अर्थात -
हिमवान को दो भागो मे बांट कर दक्षिण सागर मे प्रवेश कर गई ऐक और वीर मरु कालिका -शूलिका तुषार ,वर्बर,अनड्ंग,पारद और शकों को ग्रहण किया थी |
‘शकास्तुषाराः कंकाश्च’ (सभापर्व 51-31),
सभापर्व के अनुसार महाभारत काल मै ये तुषार(कुषाण) सभ्यता अपने चरम पर थी उस समय इनके देश मै तुषार आबद थे||
सान्ध्रान् स्तुखारान् लम्पकान् पह्लवान् दरदान् छकान् |
अताञ्जनापदाञ्चक्षु प्लावयन्ती गतोदधिम् | || वायुपुराण 47-44||,|| मत्स्यपुराण 121-45-46||
श्लोक के आधार पर यह सिद्ध हुआ है कि चक्षु या वक्षु नदी जिसे आजकल Oxus River कहते हैं, जो पामीर पठार से निकल कर उत्तर पश्चिम की ओर अरल सागर में गिरती है, यह तुषार आदि देशों में से ही बहती थी। इन सब देशों की सीमा राजशेकर के भारतवर्ष मे ही आती थी जिसका वर्णन ऊपर किया गया है| तुषारगिरि नामक पर्वत का वर्णन है जो कि बाद में हिन्दूकुश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। तुषारगिरि नाम तुषार के नाम पर पड़ा। (महाभारत भीष्मपर्व, 9वां अध्याय)
गांधार यवनाश्चैव सिंधुसौवीरमण्डला:| ,
चीनाश्चैयव तुषाराश्च पल्लवा गिगिरिगह्वरा:।।४७ ब्राह्मणपुराण p.९६
उत्तर मे जो हैं वे चीन तुषार पल्लव गिरि गह्वरशक भद्र कुलिन्द पारद विन्ध्यचूलिका अभीषाह उलूत आदि देश हैं जिनमे ब्राह्मण क्षत्रीय तथा वैश्य और सूद्र रहते हैं मलेच्छ का कोई वर्णन नही है ना ही इनका भारत के बाहर के होने का कोई वर्णन है ,उक्त वर्णन के अनुसार कोई भी यह नही कह सकता है की ये विदेशी थे जितने भारतीय ग्रन्थों हैं वह यही कहते हैं की यह उत्तरापथ के थे जिनकी आबादी समस्त यूरोप मै फैली है अधिकतर यूरोप के देशों का विकास उत्तरापथ के गुर्जरो के द्वारा किया गई है जिनमे चैचन्या, गोरजिया, कोसान, खोटान,बगलान प्रान्त, हिन्दुकुश, कोसान(ईरान), गोजर आदी दर्जनों स्थान हैं जो गुर्जर कुषाणोँ सै सम्बन्धित हैं,
तूरान और तुषार- ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में 'ऐर्य-तुर्य' शब्दों का उल्लेख है, जिसकी वजह से इस पूरे भूक्षेत्र के लिए ईरान के साथ तूरान(तुषार) नाम भी चलन में आया गौरतलब है कि ईरान शब्द की व्युत्पत्ति 'आर्य' से हुई है , ईरान का उत्तरी क्षेत्र प्राचीन काल में 'तूरान(तुषार) ' के नाम से जाना जाता था , संस्कृत में तुर्क के लिए 'तुरुष्क' शब्द है। अवेस्ता में इसे ही 'तुर्य' कहा गया है |इसके अलावा अवेस्ता की कथाओं में एक उल्लेख मध्य एशिया के प्रतापी सम्राट फरीदुन का भी मिलता है, जिसके तीन पुत्र थे। 'सल्म' (अरबी में सलामत), 'तूर' और 'इरज़'। किन्हीं संदर्भों में तूर का उल्लेख 'तुरज़' भी आया है। सम्राट ने पश्चिमी क्षेत्र के सभी राज्य, जिसमें अनातोलिया भी था, सल्म को दिए। तूर को मंगोलिया, तुर्किस्तान और चीन के प्रांत दिए और साम्राज्य का सबसे अच्छा इलाका तीसरे पुत्र ईरज़ को सौंपा संस्कृत और अवेस्तामें उल्लेखित 'तुरुष्कः', 'तुर्य' अथवा 'तूर' से ही तुर्क शब्द बना है और प्राचीन काल में इसे ही 'तूरान' या 'तुरान' कहा जाता था। इस शब्द के दायरे में सभी मंगोल, तुर्क, कज़ाख, उज़बेक आदि जाति समूह आ जाते हैं। उल्लेखनीय है कि अवेस्ता में 'आर्य' का उच्चारण 'ऐर्य' होता है। 'एर' का अर्थ होता है 'सीधा, सरल, सभ्य'। 'तूर' का मतलब होता है 'ताकतवर, कठोर, मज़बूत'। हिन्दी में प्रचलित तेज़-तर्रार और तुर्रमखाँ जैसे मुहावरों के पीछे यही तुरुष्क, तूरान और तुर्क का प्रभाव रहा है।
गुर्जर व्याख्या- कुषाण वंश का गुर्जर होना उतना ही खरा हे जितना आज उनके प्रतिनिधि कुषाण/कसाना/खटाना /बैसला /गॉर्सी हैं, जितना सच आज इनका गुर्जर होना हे उतना ही सच कल इनका कुषाण वंश से होना था , यह माना जाता हे की गुर्जर शब्द की उत्पत्ति ईरानी शब्द ‘गुशुर’ से हुई हैं, जिसका अर्थ हैं राजपरिवार अथवा राजसी परिवार का सदस्य थे |कुषाणोँ की सभी उपाधियाँ आज गुर्जर समाज मै बहुत सै गोत्र बना चुकी है जिन सै साफ पता लगता है | मेलूं (Melun) ,दोराता(Domrata- Law of the living word),मुंडन मुरुंड (lMurunda) मंडार, मौडेल और मोतला खाप का सम्बंध मुंडन खाप से हैं ,बैंसला (कुषाण सम्राट कुजुल कडफिस ने ‘बैंसिलिओ’ उपाधि धारण की थी कनिष्क ने यूनानी उपाधि ‘बैसिलिअस बैंसिलोंन’ (Basilius Basileon) धारण की थी, जिसका अर्थ हैं राजाओ का राजा (King of King), कपासिया कुषाणों की राजधानी कपिशा (बेग्राम) कपसिया खाप के, गंगा जमुना के ऊपरी दोआब स्थित बुलंदशहर क्षेत्र में १२ गाँव हैं ‘’देवड़ा/दीवड़ा” कैम्पबेल ने भीनमाल नामक अपने लेख में देवड़ा को कुषाण सम्राट कनिष्क की देवपुत्र उपाधि से जोड़ा हैं ,
कसाना:कसानो को कनिंघम की सर्वमान्य व्याख्या करते हुऐ कुषाण को कसाना का वशंज तो बताया ही है अलेक्जेंडर कनिंघम ने आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, खंड IV, 1864 में कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की है| अपनी इस धारणा के पक्ष में कहते हैं कि आधुनिक गुर्जरों का कसाना गोत्र कुषाणों का प्रतिनिधि हैं| अलेक्जेंडर कनिंघम बात का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि गुर्जरों का कसाना गोत्र क्षेत्र विस्तार एवं संख्याबल की दृष्टि से सबसे बड़ा है। कसाना गौत्र अफगानिस्तान से महाराष्ट्र तक फैला हुआ है| कसानो के सम्बंध में पूर्व में ही काफी कहा चुका हैं| तथा कनिंघम की बात को आगे बडाते हुऐ "डैनजिल इबैष्टोन" ने अपनी बुक "कास्ट ओफ पंजाब" मै कहा है की कुषाण राजा इन्हीं गुर्जरो के राजा थे तथा मथुरा राजधानी को ब्रज का मध्यबिन्दू कहा गया है जिसके अनुसार दक्षिण तथा मध्यभारत तक मै कुसानों की आबादी सभी खांपों मे सबसे ज्यादा है, इसी पक्ष मे अपना मत रखने बाले “सुशील भाटी” जी ने आगे ऐक नई व्याख्या का आगमन किया जिससे ऐक नऐ श्रोत खुलते हैं’’ गुशुर>गुजुर>गुज्जर>गुर्ज्जर>गुर्जर’’ कुछ इतिहासकार के अनुसार गुर्जर शब्द की उत्पत्ति ‘गुशुर’ शब्द से हुई हैं| गुसुर ईरानी शब्द हैं| एच. डब्लू. बेली के अनुसार गुशुर’ शब्द का अर्थ ऊँचे परिवार में उत्पन्न व्यक्ति यानि कुलपुत्र हैं| ‘गुशुर’ शब्द का आशय राजपरिवार अथवा राजसी परिवार के सदस्य से हैं| बी. एन. मुख़र्जी के अनुसार कुषाण साम्राज्य के राजसी वर्ग के एक हिस्से को ‘गुशुर’ कहते थे | सबसे पहले पी. सी. बागची ने गुर्जरों की ‘गुशुर’उत्पात्ति के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था| प्रसिद्ध इतिहासकार आर. एस. शर्मा ने गुर्जरों की ‘गुशुर’उत्पात्ति मत का समर्थन किया हैं |बम्बई गजेटियर भाग ६ जिल्द १प्रष्ट ४६१, मे सर जेम्स केम्पबेल कसाने कसाने-कुशन गुर्जरों के महत्वपूर्ण गोत्र के मानते हुऐ लिखते हैं ‘’The Gurjar sub-division of kusane on the indus and Jamuana suggest a requriment from the great Saka tribe of Kusan before the White-huns horde the power of Kusanas had been broken by Samudra Gupt (AD396+15) existence of a Kusan sub-division of Gurjar (so far as it goes )seems to favour that the kusan and gurjar are difrent not the view’ श्री यतेन्द्र कुमार वर्मा जी ने अपने ग्रन्थ मे यक कबूल किया है कि कुषान यूची गुर्जर थे जिसका सम्पूर्ण वर्णन (gurjar itihas p.166)मे किया है और कहा है की यह शुध्द आर्य तथा गुर्जर थे जिनके वर्णन भारत तथा मध्य एसिया मै विध्दमान हैं ’ कनिंघम ने कसाना के साथ साथ ऐक और पहचान की तरफ इसारा करते हुऐ कहा है की कुषाणोँ के कुछ सिक्कों की तरफ इसारा करते हुऐ कहा है की "Korso" इस को "गोर्सी" "Gorsi" सै पहचान करते हैं, चुंकी यह गोत्र भारत तथा पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मे बहुत अच्छी मात्रा मे हैकुषाणोँ के ही साम्राज्यों मे उनके विघटन के बाद बहुत सै गुर्जर जाति सै सम्बन्धित बहुत से देशों मे गुर्जर शब्द को ऐक पहचान मिली जो ऊधर की ऐक जाति बनी जिनमे गुर्जर जाति सै कुछ अलग नहीं था बस क्षेत्र ओर उनके समय अलग अलग थे लेकिन इतना जरूर है की जितनी गुर्जर शब्द को सद्रणता भारत मे मिली उतनी ही कुषाणोँ के राजवंश के विघटन के बाद बनी असंख्य गुर्जर कबीलों के थे जिनमे क्षेत्र अनुसार Gurjar (north India) ,Gorjar (East India),Gujjar(North west India and Pakistan),Gojar (kazakhastan) ,Gujar (Afghanistan and Iran) ,Kazar (georgiya),Qazar(iran), Gusarova(Russia), Gusar(Turkey and chechenya), Hungarian (Hnagari mens giri-mountain area of Hunas),and Chechanya (chenchenya),gojar(spain), etc.श्री यतेन्द्र कुमार वर्मा जी ने अपने ग्रन्थ मे यक कबूल किया है कि कुषान यूची गुर्जर थे जिसका सम्पूर्ण वर्णन (p.166)मे किया है और कहा है की यह शुध्द आर्य तथा गुर्जर थे जिनके वर्णन भारत तथा मध्य एसिया मै विध्दमान हैं, ए.एच. बिंगले भी कुषाण\ यू ची लोगों के इंडो सीथियन रेस के तुषार सै ही गुर्जरों की उत्तपत्ति पर जोर दिया है |
युइशि जाति-
1. हिउ-मी
2. शुआंग-मी
3. कुएई-शुआंग
4. ही-तू
5. काओ-फ़ू
युइशि लोग अपने ये पाँच राज्य स्थापित कर चुके थे। इन राज्यों में परस्पर संघर्ष चलता रहता था। बैक्ट्रिया के यवन निवासियों के सम्पर्क में आकर युइशि लोग सभ्यता के मार्ग पर भी अग्रसर होने लगे थे, और वे उस दशा से उन्नति कर गए थे, जिसमें कि वे तक़ला मक़ान की मरुभूमि के समीपवर्ती अपने मूल अभिजन में रहा करते थे युईसी जाति के पांच कुलो को ऐकत्रित करने का मुख्य योगदान कुजुल कडफाइसिस को है जिसने ऐकत्रित किया युईसी की विखडिण्त तागत को ऐक जुट किया था हांलांकी कुषाण वंश का प्रथम राजा हैरोइस को माना जाता है लेकिन बैक्ट्रिया मे आने बाले लोग कुजुल को ही अपना सरदार बनाकर लाये थे युईसी जाति को स्थान अम्मू दरिया पर बसून सै सामना करना पढा तथा इनका मुख्य स्थान गासू प्रान्त या गासू प्रदेश था जिसमे इनको अपने कुल भाईयों सै हमेशा संघर्षों का सामना करना पढा था क्योंकि इनके प्रान्तो मे चारागाह पर्याप्त थे मगर बर्बरता के पर्याय रहे हूंण वंशीय ने इनको ऊधर सै खदेड दिया था क्योंकि आतातई हूंणों के सभी आक्रमण कुषाणोँ को ही झेलने पडे थे कुषाणोँ के बुरे समय मे मोदू ने उनका साथ दिया था
कुषाण वंश के राजा--->
१-हेराइस (1-45ad)
२.कुजुल(80-95ad)
३.विम ताकतो(95-115ad)
४.कनिष्का(115-140ad)
५.हुविष्का (140-180ad)
६.वसुदेव (180-210ad)
७.कनिष्क दुतीय (210-230ad)
८.वसिष्क (230-255ad)
९.कनिष्क तृतीय (255-275ad)
१०.वशकुषान (275-290ad)
११.वशुदेव दुतीय (290-310ad)
१२.शका (310-325ad)
१३.xanesh (325-335ad)
१४.वशिष्क (335-360ad)
१५.वसुदेव तृतीय (360-365ad)
१६.किपुन्डा (365-375ad)
कुषांण वंश के प्रथम सै तीन राजा जो की विवादित रहे हैं की ये ग्रीक हैं की कुशान हैं जबकी निशकर्ष तक अब तक मिओस को बतया है B.n.mukhrji ने जबकी अन्य इतिहासकारों के मत हैरोइस के हैं जबकी इंडों ग्रीक कल्चर के सिक्के जिनपर नाना और हैर्कूलिस की अंकन तो यही बताता है की यह कुषाण के वंशागत राजा रहे हैं
1-Sapalbizes
2=Arseiles
3-Pabes
भारत मे नाग राजाओं के सहयोग सै कुषाण वंश के अन्तिम राजा किपुन्डा जो की मजबूती सै शासन को नही सम्भाल पाये और नजदीकी नाग रियासतें ऐकजुट होकर इनका अन्त कर देती है और सत्ता नागों के पास आ जाती है लेकिन भारत मे अन्त होने के बाद अफगानिस्तान तथा हजारा मे 3 ad मे इनके ही किसी वशंज के ऐक रियासत पर आसीन होने की सम्भावना जताई गई है |
चन्द्रम उपासक&(वंशी)-
चीन मे ग्रीक की चन्द्रमा की देवी को "चांगे" रोमन मे "लूना" ग्रीक मैं इसै "सेलेन" तथा "आर्टमीश" कहा करते थे ,और इनके मुद्राऔं सै प्राप्त नाना देवी के शर पर विराजमान चन्द्रमा की आक्रति का चिन्ह इसी और इसारा कर रहा है कि यह चन्द्र उपासक थे,75bc मैं जिस किनारे पर यह लोग रहते थे उसके पास ही "इला" नाम की नदी भी निकलती है इला सूर्य के पूत्र , इला सूर्य के पूत्र मनू की पुत्री थी जिस सै चन्द्रवंशियों की उत्पत्ति हुई है यह तो धार्मिक मान्यताप्राप्त सन्दर्भ है लेकिन जिस जाति सै यह लोग थे जिसको "यूईसी"/यूची" कहा गया है इतिहास मैं उसका भी अर्थ यही निकलता है "चन्द्रमा की जाति " इलल नदी के तटों पर भी बुद्ध धर्म से सम्बंधित कुछ चित्राकलायें मिली हैं जिनसे इनके उधर रहने की सदृढ़ता मिलती हे इल्ल नदी साथ ही ये भी पता चलता हे की बसून ने उधर भी इनको नहीं रहने दिया था
गुजरी भाषा व्याखया - कुषाणोँ ने बैक्ट्रीया पर अधिकार किया उसे समय ऊधर ग्रीक सभ्यता तथा लिपी ज्यादा मात्रा मे उपस्थित थी क्योंकि की ग्रीकों के अधीन यह जगह काफी समय सै थी जब कुषाणोँ ने अधिकार किया तो इनकी भाषा की जगह पर आर्य भाषा को लाये जबकी प्रारम्भिक समय मे ईधर खरोष्टी भाषा ही ग्रीक लिपी मै चलती थी ज्यादा जिसके कुछ समय बाद यह बख्त्री भाषा का उपयोग होने लगा जंहा तक है रोबोटक अभिलेक के अनुसार इनके नामो के वर्णन मे "ओ" को ज्यादा महत्वदिया गया है जिसमे हम इस बात को देखते हैं की यह लोग बोलते कैसे थे उस समय Ozeno (Ujjain), Kozambo (Kausambi), Zagedo (Saketa), Palabotro (Pataliputra) and Ziri-Tambo (Janjgir(ship)-Champa). तथा कनिंघम के अनुसार जिस सिक्के पर कोर्स लिखा है अगर उसे गोर्स (गोर्सी) पढना चाहिये तो kus(a^-)na तो k=G, Gus(a^-)NA इसी क्रम मै आगे इनके सिक्कों पर तथा बी.ऐन.मुख़र्जी के अनुसारKomaro (Kumara) and called Maaseno (Mahasena) and called Bizago (Visakha), Narasao और Miro (Mihara). आदि शब्द इनके सिक्कों पर मिलते हैं जिनके अनुसार वासुदेव को वाजुदेव पढना चाहिये तथा स/श की जगह पर ये लोग "ज" का उपयोग करते थे अब हम कुसान/कुषान पर ध्यान देते हैं "क" को जब कनिंघम ने "ग" बताया है तब आगे "गुजान"(Gujan) जो की गूजर शब्द कि ही अप्रभंस है Komaro (Kumara) and called Maaseno (Mahasena) and called Bizago (Visakha), Narasao और Miro (Mihara). आदि शब्द इनके सिक्कों पर मिलते हैं जिनके अनुसार वासुदेव को वाजुदेव पढना चाहिये तथा स/श की जगह पर ये लोग "ज" का उपयोग करते थे अब हम कुसान/कुषान पर ध्यान देते हैं "क" को जब कनिंघम ने "ग" बताया है तब आगे "गुजान"(Gujan) जो की गूजर शब्द कि ही अप्रभंस है।जी. ए. ग्रीयरसन ने लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, खंड IX भाग IV में गूजरी भाषा का का विस्तृत वर्णन किया हैं| गूजरों की भाषा गूजरी के बारे मे लिखने बाले सर डेन्जिल इबटसन ने कास्ट एन्ड ट्राइब्स आफ दी पिपुल (पंजाब कास्टस) 1883’’ इनकी भाषा पंजाबी तथा पश्तो सै बिल्कुल भिन्न हिन्दी है जो नरम जुबानी है "इसी भाषा को पूंछ ऐवटाबाद मे बोली जाती है जिसको नरम भाषा गूजरी कहते हैं यही भाषा अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान के सीमा प्रान्त इलाकों मे बहुतायात मे बोली जाती है यह क्षेत्र गुर्जरो के ही अधीन रहा है चाहे वो कसाणा /कुषाण हों या उनके वशंज खटाना या प्रतिहार हों लेकिन इतिहासकारों के अनुसार हूंणों के आगमन के समय इस भाषा का चलन कहा गया है जबकी इसका सम्बन्ध तो बख्त्री सै मिलते हैं | जाहीर सी बात हे की कुसन वंश के बाद भारत में किसी भी नयी जाती का आगमन नहीं हुआ हे जिस ने खुद की कोई संस्कृति का विकाश किया हो लेकिन वो सिरफ कुसन वंश ने किया था जिस का जीता जगता सबूत उनकी भाषा तथा उनके अभिलेख मूर्तिकला आदि भारत में ज़िंदा हैं जिस से इस का पता लगता हे की यह राजवंश अपने समय में तररक्कि के किस पथ पे गमन कर रहा था लेकिन गुजरी भाषा के जो प्रमाड कुषाणों के समय में मिलते हैं वो किसी भी समय में नहीं मिलते हैं कुसनो के बाद सबसे बड़ा माइग्रेशन हूणों का हुआ जिन की कोई भासा नहीं थी अगर हूडों की कोई भाषा होती तो माना जा सकता था की कुसन काल की भासा का इनके साथ कुछ मिलावट होसकती थी मगर ऐसा नहीं हुआ आज भी हम देखें तो कुसन और हूँड़ों के राज करने की जो रियासतें थीं उनमे मूलरूप से गुजरी भाषा का ही चलना हे उत्तरप्रदेश के गुर्जर बहुल एरिया में आज भी राम राम को रोम रोम बोलै जाता हे,ओ को कॉमन कर के बोलै जाता हे जब आज कुषाण राजवंश को ख़त्म हुए २००० वर्ष हो चुके हैं लेकिन हमारे लोगों की आज भी वोही भासा हे | वैसे ही गूजरी बोली में राम को रोम, पानी को पोनी, गाम को गोम, गया को गयो आदि बोला जाता हैं|इसी भासा में कुसानो के सिक्कों उन्हें बाख्त्री में कोशानो लिखा हैं और वर्तमान में गूजरी में भी ओ को अतिरिक्त जोड़ के कोसानो बोला जाता हौं| अतः कुषाणों द्वारा प्रयुक्त बाख्त्री भाषा और आधुनिक गूजरी भाषा की समानता भी कुषाणों और गूजरों की एकता को प्रमाणित करती हैं|
सूर्य पूजन- सूर्य पूजन दो प्रकार से किया जाता है। एक तो मण्डलाकार बिम्ब का पूजन और दूसरे मानव रुपिणी सूर्य-प्रतिमा का पूजन। सूर्य की भारतीय पद्धति की नर आकार प्रतिमा, जिसे कुषाण काल के पूर्व की माना जाता है, बुद्ध गया से प्राप्त हुई है। वह रथारुड़ है। परन्तु यह रुप भारत में विशेषकर कुषाण काल में लोकप्रिय न हो सका। इसक कदाचित् यह भी कारण था कि मानवाकार सूर्य की उपासना भारत में मुख्यत: ईरान से आई।
ये विदेशी लोग जिन्हें भारतीय साहित्य में 'मग' नाम से जाना गया, अपने साथ सूर्य उपासना की पद्धति ले आए, इन्हीं के वेश के समान इनके देवताओं की वेशभूषा भी होना स्वाभाविक था। इसलिए कुषाण कालीन सूर्य मूर्तियाँ लम्बा कोट, चुस्त पाजामा और ऊँचे बूट पहने हुए दिखलाई पड़ती है। इस वेश को भारत में 'उदीच्य' वेश के नाम से जाना गया। कुषाण कालीन माथुरी कला में रथारुड़ एवं आसनारुड़, सूर्य की लंबा कोट, बूट, गोल टोपी तथा इने-गिने अलंकरण धारण की हुई प्रतिमा पाई गई है। एक मूर्ति में उनके छोटे पंख भी दिखलाए गए हैं (मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या-डी-४६) दूसरी में उनके आसन पर ठीक वैसी ही अग्नि की बेदी बनी है जैसी कतिपय ईरानी सिक्कों पर पाई जाती है। रालैण्ड के अनुसार –(certainly even in primitive Buddhism sakyamuni had come to be identifieed with the sun god and his nativity linked to the rising of another sun) निश्चय ही प्रारम्भिक बौध्द धर्म मे शाक्यमुनी की पहचान सूर्य देवता सै की जाने उगी थी और उनका जन्म दूसरे सूर्योदय के रूप मे माना जाता है| भारत में पहले सूर्य मन्दिर की स्थापना मुल्तान में हुई थी जिसे कुषाणों ने बसाया था। पुरातत्वेत्ता एं0 कनिघम का मानना है कि मुल्तान का सबसे पहला नाम कासाप्पुर था चूकि भारत मे सूर्य और कार्तिकेय की पूजा को कुषाणों ने लोकप्रिय बनाया था, इसलिए इस दिन का ऐतिहासिक सम्बन्ध कुषाणों और उनके वंशज गुर्जरों से हो सकता हैं| कुषाण और उनका नेता कनिष्क (78-101 ई.) सूर्य के उपासक थे| इतिहासकार डी. आर. भंडारकार के अनुसार कुषाणों ने ही मुल्तान स्थित पहले सूर्य मंदिर का निर्माण कराया था| भारत मे सूर्य देव की पहली मूर्तिया कुषाण काल मे निर्मित हुई हैं| पहली बार कनिष्क ने ही सूर्यदेव का मीरो ‘मिहिर’ के नाम से सोने के सिक्को पर अंकन कराया था| पेशावर के पास शाह जी की ढेरी नामक स्थान पर कनिष्क द्वारा निमित एक बौद्ध स्तूप के अवशेषों से एक बक्सा प्राप्त हुआ जिसे ‘कनिष्का सकास्केट’ कहते हैं, इस पर सम्राट कनिष्क के साथ सूर्य एवं चन्द्र के चित्र का अंकन हुआ है| इतिहासकार वी. ए. स्मिथ के अनुसार कनिष्क ढीले-ढाले रूप के ज़र्थुस्थ धर्म को मानता था, वह मिहिर (सूर्य) और अतर (अग्नि) के अतरिक्त अन्य भारतीय एवं यूनानी देवताओ उपासक था| दक्षिणी राजस्थान में स्थित प्राचीन भिनमाल नगर में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण काश्मीर के राजा कनक (सम्राट कनिष्क) ने कराया था। मारवाड़ एवं उत्तरी गुजरात कनिष्क के साम्राज्य का हिस्सा रहे थे। भिनमाल के जगस्वामी मन्दिर के अतिरिक्त कनिष्क ने वहाँ ‘करडा’ नामक झील का निर्माण भी कराया था। भिनमाल से सात कोस पूर्व ने कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनिष्क को दिया जाता है|मिहिर (सूर्य) के उपासक थे। सूर्य का एक पर्यायवाची ‘मिहिर’ है, जिसका अर्थ है, वह जो धरती को जल से सींचता है, समुद्रों से आर्द्रता खींचकर बादल बनाता है। गुर्जरों को आज तक मिहिर बोला जाता हे, राजस्थान में इसी के साथ ये एक सम्मानीय भी हे
निष्कर्ष -कुषाण वंश के इतिहास को समझने के बाद यही दीखता हे की ये वंश गुर्जरों का ही था जिस पे देशी या विदेशी बोलना गलत हे और साथ ही ये वंश हिन्दू ,बुद्धा ,पारशी ,अर्थात सभी धर्मों को एक सामान मानते थे इनके इतिहास में हर धर्म की नीव को मजबूती मिली थी इनपे एक धर्म का बोलना बिलकुल गलत हे|
लेखक -इंजी राम प्रताप सिंंह गुर्जर
पता- हनुमान रोड मेहगांव भिन्ड
हाल-त्यागी नगर मुरार ग्वालियर
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ReplyDeleteSAMRAT KANISHKA KUSHAAN YUCHI JAATI
KE THE AUR VAH EK BUDDIST RAJA
THE AUR VAH CHAINA SE AAYA THA
KANISHKA KUSHAAN KA JAKAR ITIHAAS
HISTORY KO PADHO SCHOOL COLLEGE
MAIN JAKAR YA FIR GOOGLE KE
WIKIPEDIA PER JAKAR PADH LENA
KAHA SE ITIHAAS HISTORY KO PADH
KAR AATE HO WHATSAPP UNIVERSITY
SE KYA GUJJAR SALE BHAINS CHOR
THE AUR AAJ KE SAMAY MAIN DUSRON
KA GOTRA CASTE SURNAME UPNAAM
ITIHAAS HISTORY KO CHURA RAHE HAI
GUJJAR SAMAJ KE LOG KISI KO BHI
APNA BAAP BANA LETE HAI
Nhi bhai essa nhi
DeleteSale Teri bhais chura li kya gurjaro ne Kuch bhi bolega
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